कई बार सोचती हूं पूछुं उस रचयिता से उसकी रचनाओं का अर्थ...
अर्थ उसके हर सृजन का... अर्थ उसके हर विध्वंस का..
क्यों अन्धकार बन हर निशा वो छा जाता नभ पर,
फिर क्यों स्वयं ही उगता प्राची में सूरज बनकर,
क्या मतलब ज्योत्सना के धवल आंचल को दे शशि की झिलमिल..
फिर उस पर देना गहन आवरण अमावस बनकर,
जानना चाहती हूं उससे इस तिमिर-प्रकाश के खेल का अर्थ....
कैसे स्वरूप दिया उसने जाने कैसे ताने बाने बुनकर,
कैसे नई कहानी घढता वो अपनी हर कृति पर,
क्यों ऐसे बांधे तार दिलों के कि झंकॄत वो हर स्पर्श पर..
कैसे जोङा उसने सारे सिरों को कि हम रह जाते हर बार उलझकर,
जानना चाहती हूं उससे उसकी इस माया का अर्थ...
सब कहते हैं वो व्याप्त ब्रह्मांड के कण-कण पर,
वो हर मनुज में बसता आत्मा बनकर,
फिर क्यों मनुज स्वयं से लङता शत्रु बनकर...
क्यों रौंद डालता वो हर जीवन को अपने लक्ष्य के पथ पर,
जानना चाहती हूं अपनी इस अग्यानता का अर्थ.....
सत्य शाश्वत मृत्यु है और ये जीवन क्षणभंगुर नश्वर,
हम सारे यहां उस अनंत पथ के हमसफ़र,
है सब को ग्यात ये सत्य फिर भी...
फ़िर कैसा हर्ष कैसा विषाद, जीवन के आरंभ-अंत पर,
जानना चाहती हूं अपनी इन भावनाओं का अर्थ...
अर्थ उसके हर सृजन का... अर्थ उसके हर विध्वंस का..
क्यों अन्धकार बन हर निशा वो छा जाता नभ पर,
फिर क्यों स्वयं ही उगता प्राची में सूरज बनकर,
क्या मतलब ज्योत्सना के धवल आंचल को दे शशि की झिलमिल..
फिर उस पर देना गहन आवरण अमावस बनकर,
जानना चाहती हूं उससे इस तिमिर-प्रकाश के खेल का अर्थ....
कैसे स्वरूप दिया उसने जाने कैसे ताने बाने बुनकर,
कैसे नई कहानी घढता वो अपनी हर कृति पर,
क्यों ऐसे बांधे तार दिलों के कि झंकॄत वो हर स्पर्श पर..
कैसे जोङा उसने सारे सिरों को कि हम रह जाते हर बार उलझकर,
जानना चाहती हूं उससे उसकी इस माया का अर्थ...
सब कहते हैं वो व्याप्त ब्रह्मांड के कण-कण पर,
वो हर मनुज में बसता आत्मा बनकर,
फिर क्यों मनुज स्वयं से लङता शत्रु बनकर...
क्यों रौंद डालता वो हर जीवन को अपने लक्ष्य के पथ पर,
जानना चाहती हूं अपनी इस अग्यानता का अर्थ.....
सत्य शाश्वत मृत्यु है और ये जीवन क्षणभंगुर नश्वर,
हम सारे यहां उस अनंत पथ के हमसफ़र,
है सब को ग्यात ये सत्य फिर भी...
फ़िर कैसा हर्ष कैसा विषाद, जीवन के आरंभ-अंत पर,
जानना चाहती हूं अपनी इन भावनाओं का अर्थ...
4 comments:
तुम्हारे सारे प्रश्नों का एकमात्र उत्तर है यह कि हम आज भी परमात्मा को स्वयं से अलग कर के देखते है…यह क्यों नहीं सोंचती की अगर धर्म के सामने तृष्णा न हो तो जीने का मजा आएगा…हमेशा मिलन ही जीवन का एक पहलु नही हो सकता जब जुदाई न हो तो अहसास क्या बन पाएगा…वो हमसे ज्यादा समझदार है…प्रश्न हमें पुछना चाहिए खुद से कि जब प्रथम मानव का जन्म हुआ होगा कितना सुंदर लगता हो जगत अपना…जाकर ताज महल देखो… मैं सोचता हूँ कि जब यह बनकर तैयार हुआ होगा तब कितना अद्भुत लगता होगा लेकिन मानव की विलासितापूर्ण जरुरतों ने इसे भी समाप्त कर दिया…एकबार इस द्वैत आवरण को जला कर के तो देखो…उसका प्रेम रस बहुत महीन है…छोड़े नहीं छूट्ता…
Wellcome back!!!
धन्यवाद.. पर इस बार तुम नहीं समझे दिव्य.. मैने दोनो पहलुओं को समान रुप से लिया है और स्वीकारा है.. और परमात्मा को तो मैनें कण-कण में स्वीकारा है..और अपने उत्तर को तुमने खुद हि काटा है.. एक तरफ़ तो सुख - दुख को साथ देखने कि बात कह्ते हो तो दूसरी तरफ़ एक अकेलॆ मानव के साथ जगत को सुंदर मानते हो.. एक तरफ़ धर्म और तृष्णा का स्मन्वय किया दूसरी तरफ़ विलासिता को दोष दिया.. यहां उस असीम शक्ति से प्रश्न कर मैने मानवों को दोनो पहलू देखने कहा है।
मैं इसपर कोई विवाद नहीं चाहता…पर तुम्हारा आक्षेप गलत है कि मैने नहीं समझा…अगर अभी-भी तुम्हें कण-कण में परमात्मा दिखते हैं तो इसका साफ मतलब है कि अभी-भी कण और परमात्मा एक नहीं दो हैं…मैं जिसकी बात कर रहा हूँ वह व्यवहारिक सत्ता है…पारमार्थीक सत्ता की बात मैं नहीं कर रहा…पारमार्थीक सत्ता में मैं और ईश्वर दो नहीं एक भी नहीं अवर्णीय है…इसकारण उसकी
बात तो हो ही नहीं सकती…व्यवहारिक रुप में तुम सही हो…कुछ दिनों में सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म पर लिखुंगा…।कहीं इसका उत्तर मिल जाए!!वैसे भी ये इतना आसान नहीं है जो दिखता है…कितने दर्शन की पुस्तकें इसको अबतक समझ नहीं पाईं…जब कभी सामना होगा तब पुछ लेना…तब वाद करेगें यहाँ मात्र वितडा के कुछ नहीं मिलेगा…
दो बार तो पढ चुका हूँ, समझ मे नही आयी कविता।
रात को डिक्शनरी लेकर बैठूंगा, तब शायद समझ मे आयेगी।
जगह मिलने पर पास दिया जाएगा। ( समझ मे आने पर टिप्पणी अवश्य की जाएगी)
Post a Comment