Saturday, February 17, 2007

बहुत दर्द होता है माँ..!


धरा की नम मिट्टी में दबे बीज कि तरह...
जिससे अभी अंकुर फूटा हो, बीज-पत्र लेकर..
मानो मासूम कली, जो अभी खिली भी ना हो..
जैसे सीप में पङी बूंद, जो बनेगी मोती एक दिन..
उसी तरह सुरक्षित नम कमल सी कोख में..
मैंने स्थान पाया.. शुरुआत थी ये मेरे जीवन की..
अभी कोई शक्ल कोई आकार मैंने लिये नहीं..
अभी वो रचयिता व्यसत था मुझे रूप देने में..
बस अभी हृदय ने धङकना शुरु किया था..

आप दोनों भी बहुत खुश थे.. मेरे जन्मदाता..
आपका प्रेम अब जीवंत रूप जो लेने वाला था..
मेरे आने की कई कल्पनायें संजोने लगे आप..
मेरे नाम, मेरे रूप से लेकर मेरे भविष्य तक की..
सारी योजनायें गढी जाने लगी..
रोज एक नये परिवर्तन के साथ...
ये सब सुन मेरा कोमल मन भी सपने बुनने लगा..
एक नयी दुनिया के, अपने जीवन के, आपके ममत्व के..
जाने कैसा होगा सब-कुछ.. रोज नई कल्पना मन में होती..
ऐसे ही बीत गये कुछ दिन, खुशी के पलक-पावङों पर..
फ़िर एक दिन कहीं गये आप दोनो.. संग मुझे लेकर..
वहां अजीब सी गंध थी और सफ़ेद कोट पहने आदमी..
उसे डॉक्टर कहते हैं ये जाना मैंने..
उसने कुछ यंत्रों से जाने क्या-क्या देखा..
और कुछ बताया आपको..मेरे जन्मदाता..
फ़िर एक सन्नाटा सा छा गया...
मुझ तक आती स्नेह की तरंगें रुक गयीं..
जो महसूस हो रहा था.. वो अवसाद था..
मेरा कोमल मन भयभीत हो गया..
दम घुट रहा था मेरा.. हृदय ने पुकारा..
माँ!..माँ!.. डर लग रहा है...
अचानक मेरी कोमल अविकसित देह में..
कुछ चुभने लगा.. बहुत छ्टपटाई मेरी देह..
पर उसे विदीर्ण किया जा रहा था..
रुक गये हाथ मुझे स्वरूप देते रचयिता के..
ये तो शायद उसने भी नहीं सोचा था..
रक्त की धारा बह निकली..
और मैं केवल एक मांस का छिन्न-भिन्न टुकङा..
और हृदय से बस निकली केवल एक चीत्कार.....
माँ!...माँ!.. बहुत दर्द होता है माँ.. बहुत दर्द..
और फ़िर शाँति.. शायद यही थी मेरी नियति..

जानना चाहेंगे मेरा कसूर क्या था..
मैं एक लङकी थी..
मेरा लिंग निर्धारण करवाया गया..
ताकि मेरा निश्चित हो सके मेरा जन्म..
और तय किया गया मेरा अंत..
पर क्या ये सचमुच मेरा अपराध था....???????

11 comments:

Divine India said...

एक शक्ति-सामर्थ इंसान का रुप बहुत दूसरा होता है…अभी-भी यह रुप विद्यमान है…चाहे लड़की हो या लड़का…पाषाण-काल में तो कोमक लता ही थी तो जोर चल पड़ा…और नियती यही हो गई…
उम्दा और संवेदनशील रचना…भावनात्मक क्रांति का आरंभन्…।

रजनी भार्गव said...

एक भावपूर्ण रचना. हमारे समाज का एक ऐसा सत्य जिसे हम देश की तरक्की के साथ अभी भी पाल रहें हैं.

Udan Tashtari said...

एक सुंदर भावनात्मक अभिव्यक्ति है, बहुत बढ़िया, बधाई.

Unknown said...

ati sunder, isse pahle me kabhi kavitaye nahi padta tha...mujhe jyda kuch pata nahi hai inke bare me..lekin jo bhi hai dil ko choo gai...ab shayad mujhe kavitaye acchi lagne lagi hai...iska poora credit aapko jata hai...dhanyavaad

Jitendra Chaudhary said...

बहुत ही भावपूर्ण कविता। ये एक सच्चाई है, कड़वा सच। इतने पढे लिखे समाज मे आज भी(कई जगह) लड़की का होना अपशकुन समझा जाता है। लानत है ऐसे समाज मे जहाँ घर की लक्ष्मी का सम्मान नही होता।

बहुत सुन्दर रचना के लिए साधुवाद।

Anonymous said...

आपकी रचनाओ का जबाब नही

Anonymous said...

आपकी कविता की अंतिम लाईनों में कितनी सच्चाई है, देखिये ना आज ही समाचार में देखा कि रतलाम में किसी हस्पताल के पीछे बहुत ही ज्यादा शायद ३०० के करीब नरकंकाल या हड्डियां मिली हैं और ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि लडकी मालूम होने पर उनका गैरकानूनी तरीके से गर्भपात करवाया गया हो।

Monika (Manya) said...

दिव्य तुम हमेशा इतनी अच्छी तरह समझते हो.. कि और क्या कहूं शुक्रिया..

रजनी जी यहां आने क और मेरी बात समझने का बहुत शुक्रिया..

समीर जी फ़िर से धन्यवाद युं ही हौसला बढाते रहिये..

राहुल जी क्या कहूं आप्ने इतना सम्मान दिया है शुक्रिया..

जीतू भाई बहुत धन्यवाद यहां आये. मेरी बात को समझा, अपने विचार दिये..

Two Faces.. बहुत धन्यवाद की आपको रचना पसंद आई..

Tarun Ji.. आपने पढा और जानकारी देकर मेरी सोच कॊ जो समर्थन दिया है.. बहुत ध्न्यवाद

रंजू भाटिया said...

kokh mein kabar de di us nanhe phool ko
jab naam beti ka thaa us se jurha......
kis se karti woh fariyaad apni ,
jab baag ka maali hi thaa usko ujarane per tula!!


ranju

Chandra S. Bhatnagar said...

Manya Ji,

I could feel the pain. If pain-waves can transcend age and gender, the credit goes to the author for a powerful depiction of such a heinous act. Your poem reminded me somewhat of my own poem that I wrote in 1994. I am reproducing it here for you:

As you lie on
the creaky hospital cot,
there is a lot
which can be thought
by listening to the uneven,
rapid wheeze
and by looking at
the hitherto unseen pallor
of your cheeks......

Many (im)possibilities
can be perceived;
that a father
I may never be;
that my father may
never be
the same with me;
that you may well have entered
the last lap
in your race for that ever elusive
qualifying tag;
that come what may
one day
you shall really be
a non-entity
and there may be only me
to see you lying limp and lifeless
just as you now seem to be......

Perceptions may not be real.
The only reality
is a single soul searching query:
Does any kind of race
in pursuit of materialism
allow anyone
to cause the demise of the one
who is still huddled up
in that warm,
supposedly safe darkness
of anonymity?

Isn't a human life,
howsoever insignificant it be might,
too much a price
to pay
for even the rarest possession on earth?
*

You may want to leave a comment. For that, you can go to:
http://matchingprose.blogspot.com/1994/08/soul-searching.html

Also, I was trying to send you an email at the yahoo ID that you gave me. It was coming back undelivered. Kindly check.

Regards

Shekhar

Chandra S. Bhatnagar said...

Manya ji,

You may also want to check:

http://matchingprose.blogspot.com/2007/05/victory-labels-2001.html

Regards

Shekhar