Sunday, October 21, 2007

वादा....


समंदर.... साहिल...

बलखाती मौजें...

भीगे अलसाये पत्थर..

सिंदूरी शाम....

थका-थका सा सूरज..

लौटते पंछी....

गीली पोली सी रेत...

धंसते हैं तेरे-मेरे कदम...

बनाते हैं निशां...

हम हाथ थामे.. चलते हैं..

नंगे पैर... आगे...

कभी.. जब..

पीछे मुड़ के देखती हूं...

रेत के निशां..

मिटा चुकी होती है...

कोई आती-जाती लहर..

नमकीन पानी से...

अधभींगा बदन...

छिल सा जाता है..

जो गुजरती है हवा...

टीसता है दर्द...

और अचानक...

मेरी हथेली पर...

कस उठती है...

तुम्हारी पकड़...





Sunday, October 7, 2007

बस यूं ही..........


ख्वाब आंखों में लिये...

रतजगे करता है कोई...

पूछती हूं...

बंजर हुई नींदों की वजह...

कहता है..

बस यूं ही.........


कभी बे-साख्ता शेर..

कहे जाता है..

कभी ग़जलें लिखता है...

पूछती हूं..

हवाओं पे सज़दे की वजह..

तो.. बस यूं ही...


मेरा दीदार किया करता है...

कभी ख्वाबों में...

कभी तस्वीरों में...

पूछती हूं..

खोयी-खोयी खामोशी..

का सबब...

फ़िर वही.. बस यूं ही...