Tuesday, November 4, 2014

तुम्हारा अह्सास .... और मेरी तन्हाई.....





हर रोज़ शाम ढलते-ढलते....

जैसे जैसे रात घिरने लगती है....

वैसे बढता जाता है...

मेरी तन्हाई का एह्सास...


तुम चली आती हो....

अचानक जाने कब मेरे पास...

कभी जुल्फ़ें बिखेरे, कभी आंचल फ़ैलाये...

कभी मुस्कुराती.. कभी शरमाती..

मेरे पास आकर मुझमें...

सिमट जाती हो तुम...


फ़िर धीरे-धीरे कली सी..

खिलने लगती हो तुम..

ज्यों-ज्यों रात गहराने लगती है...

और चांद चढता जाता है गगन में..

तुम बिखर जाती हो चांदनी सी...


और मैं विस्तृत आकाश सा....

तुम्हें भर लेता हूं अपने आगोश में...

तुम्हारी महकती खुश्बू... गर्म सांसें..

तुम्हारे बदन का वो रेशम....

मेरे सीने में जलती वो ठंडी आग..

तुम पिघलती जाती हो मेरी बांहों में...

और मैं भी समा जाता हूं...

तुम्हारी रूह में....


ना मैं ना तुम.. कोई नहीं...

बस दो जिस्मों की एक परछांई....

दो दिलों की एक धड़कन.......


फ़िर तुम और भी चमक उठती हो...

चांदनी सम...

तुम चंचल निर्मल नदी सी होती हो..

मैं सागर सा विस्तृत हो जाता हूं.....


तुम शांत तृप्त मुझमें खोकर....

मैं परिपूर्ण तृप्त तुम्हें पाकर...

मैं देखता रहता हूं तुम्हें सोते हुये...

तुम्हारी बंद पलकें...

चेहरे की वो मासूमियत.....

छूता हूं तुम्हारे गालों को...

अपनी दो ऊंगलियों से...


और तुम मुस्कुरा देती हो....

तुम्हें लिये मैं भीं सो जाता हूं...

दोनों उस परम अनुभूति मे खोये हुये..


फ़िर रात ढलने लगती है...

और ढल जाती है चांदनी भी....

सुबह की गरमी में...

मैं आंखें खोलता हूं....

अपने हाथ बढाकर तुम्हें टटोलता हूं....

पर तुम कहीं होती नहीं....

पाता हूं वही एक खाली- सूना कमरा...


एक बिस्तर.. उस पर रखे दो तकिये...

एक बिना सिलवटों वाली कसी चादर....

सुबह की पूर्वाई में ....

घुली मेरी अपनी महक...

और मेरी आंखों की कोरों पर....

रखे तुम्हारे गीले ख्वाब...


मैं एक बार फ़िर तन्हा हो जाता हूं..

तुम्हें फ़िर से पाने को मैं...

फिर वहीं सो जाता हूं....