Friday, December 19, 2008

मेरी जान भी बस वहीं से रूखसत होती है.....


यूं किसी चीज़ से डर लगता नहीं मुझको..

बस एक तेरी नज़रों से दहशत होती है...


किसी और की ख्वाहिश अब नहीं मुझको..

पर जाने क्यों तुझसे मोहब्बत होती है...


सारे जिस्म को मेरे अब कोई एह्सास होता नहीं...

लेकिन तेरे नाम से दिल में अब भी हरकत होती है...


मैंने तो कई बार की अपनी मौत की दुआ...

जाने किसकी दुआ से मेरी उम्र में बरकत होती है...


जहां से तुम ने कह दिया अलविदा....

मेरी जान भी बस वहीं से रुखसत होती है...



इंसानी लहू की चाह सिर्फ़ जानवर को ही नहीं..

यकीं मानो इंसानों में भी एसी वहशत होती है...

Monday, December 1, 2008

मैं भी अब जीना जानती हूं.....


एक लड़्की ..हूं मैं... बंधनों से बंधी हूं...

जन्म से ही... बेटी..बहन.... ये सुन-सुन बड़ी हुई..

राखी के बंधन बांधे मैंने.....

पर जाने कितने बंधनों में मै जकड़ी गई....

ईज्ज्त... आबरू.... हया..शर्म.....

जाने कितने परदों से मुझे ढका गया......

बाली.... झुमके..चूडियां.... पायल.....

इन जेवरों से.. उन परदों को कसा गया....

काजल....बिंदिया.... लाली....

इन सबसे....

मेरी आंखों... मेरे होठों पर बंधन लगाये गये.....

नीची नज़रों.. कांपते होठों... लंबे बालों...

में मेरा रूप निहारा गया......

यौवन ने गालों को.... और सुर्ख किया...

परदों को और जकड़ा गया....

सात परदो से ढके बदन को...

जाने कैसे सबने जान लिया...

कविताओं.. शेरों ... तस्वीरों..

जाने कहां -कहां.....

कभी स्याही.. कभी रंगों से....

मेरा अक्स उतारा गया.........

धीमी सदा की तारीफ़ हुई......

अश्कों से आंखें और हसीन बनीं....

डर लगा उन्हें और ज्यादा........

तो सिंदूर... मंगलसूत्र.... अंगूठी..... मेंहंदी...

नये सिंगार .. नये जेवरों से...

सात जन्मों के नये बंधन से.....

मुझे फ़िर बांधा गया......

पत्नी.. बहू..मां........

नये नामों से फ़िर जकड़ा गया....



अब दम घुटने लगा है...

इन परदों... इन बंधनों में..

एक सांस अपनी ...

खुले आसमां के तले...

चाहती हूं.......

अब किसी के लिये नहीं.....

बस खुद को जीना चाह्ती हूं.....

सिंगार सारे छोड़ दिये....

सारे जेवर तोड़ दिये.......

इस बोझ को उतार फ़ेंका है मैने....

अब कमर सीधी कर चलना चाह्ती हूं....

खुली आंखें... खुली आवाज़.....

मेरी पह्चान बने अब.....

मैं भी अब जीना जानती हूं..............










Sunday, October 26, 2008

बारिश.... अजीब सी....




कई दिनों बाद आज फ़िर बारिश हो रही है..... काले घनघोर बादल छाये हुये हैं.... और अनवरत हो रही है बारिश.... बहुत तेज नहीं... पर बहुत मद्धम भी नहीं.....


यूं तो मुझे बारिश बेहद पसंद है.... बारिश होते ही.... मेरा मन करता भींग जाउं... आसमान से गिरती बूंदों को देख्ना.. उन्हें हाथ में लेना.. बेहद पसंद है मुझे.... हल्की हल्की बारिश में चलना.. बहुत भला लगता है मुझे........


पर जाने क्यूं आज ये बारिश......... मुझे अच्छी नहीं लग रही... मानो... कुछ अजीब सी है ये बारिश... किसी अवसाद में घिरे हैं ये बादल... और यूं इसका थोड़ा धीरे बरसना.... छुपकर चुपअचाप रोने सा मालूम होता है मुझे....... आज बारिश में भीगने को भी जी नहीं चाहता.... बल्कि इस बारिश से मेरा मन भीगा जा रहा है... पलकें जाने - अनजाने चुपके से गीली हो जाती हैं.... भागते हुये बादल यूं लगते हैं जैसे.. कोई सब कुछ छोड़ कर कहीं भागा जा रहा हो.. सारी दुनिया से...




बारिश सुबह से ही हो रही है... सब कुछ भीग रहा है... हल्की ठंड भी हो रही है... पर जाने क्यूं मेरा तन-मन इस ठंडक को अपने भीतर नहीं महसूस कर पा रहा है.... मन तरस रहा है अब भी शीतलता को............ शाम हो आयी है.... पर स्याह बादलों की वजह से.. सिंदूरी लालिमा कहीं नज़र नहीं आती.... ये तो स्याह शाम है... एक स्याह शाम.... और यूं भी आज तो वक्त के पहले ही अंधेरा हो गया है... और बढता ही जाता है... भींगा अंधेरा.. घना स्याह अंधेरा....... शायद भींगे कंबल जैसा......... जिसे ओढने से क्या भला.. ठंड दूर होगी ?........ और ना चुभेगा वो ??...........




अंधेरे में ये बादल कुछ अजीब से लग रहे हैं मुझे.... इनकी सफ़ेदी अजीब सी है.. कुछ भुतहा सी.....शायद इनको देखते देखते डर भी लगता है कहीं .. भीतर ही भीतर.. और मैं झट से... नज़रें नीची कर लेती हूं.....


आज ये घने-गहरे बादल मुझे अच्छे नहीं लगते.. वरन डराते भी हैं मुझे.... कहीं बारिश इतनी तेज तो न होगी... की सब बह जायेगा...... डूब जायेगा..... ?




नहीं नहीं ऐसा नहीं होगा..... ये धीमी.. अजब सी बारिश.... इसे थमना ही होगा.. नहीं तो लगता है मेरा दम घुट जायेगा........ जैसे सांस नहीं ले पाउंगी.... मुझे खुला आकाश चाहिये..... नीला -चमकीला.... उष्ण धूप की चाहिये मुझे..... खुली हवा.. चमकीले तारे ..... चांदनी रात...... ये चाहता है मेरा मन.... जानती हूं बादल छंट जायेंगे..... इन्हें मुझे मेरा आकाश लौटाना ही होगा....... आज मुझे इनकी चाह नहीं....... मुझे अब धुली-खुली... सुंदर.... वसुंधरा की चाह है... वो भी नीले आसमां तले...........

Friday, October 17, 2008

क्षितिज के उस पार.............


" उनका मिलना एक अजीब इत्तफ़ाक था... शायद कभी सपने में भी सोचा नहीं होगा दोनों ने की किसी से यों भी मिलना होगा....... पर मिले तो सही... मिलना तय था मानो.... पहली बार मिल के लगा ही नहीं की.... पहली बार ! मिले हों......... क्या सचमुच पहली बार मिले थे? हां ऐसा कई बार होता है की जब किसी को मिलकर लगे की आप उसे हमेशा से जानते हैं..... पर उनके लिये तो ये पहली बार था... और बिल्कुल अलग और अजीब था.... उनके लिये... दोनों ये सोचकर मिले थे की शायद दुबारा कभी ना मिलेंगे... पर! अब करीब एक घंटा या ज्यादा बीत चुका है... पर ये छॊटी सी औपचारिक मुलाकात खत्म नहीं हुई अब तक... वो बोल रही है.... और वो सुन रहा है... एक की आंखें चमक रही है.. दुसरे के लब मुस्कुरा रहे हैं... क्या दोनों सचमुच बातें कर रहे हैं... नहीं.. दोनों बस साथ हैं एक दुसरे के.... बस धड़्कन कह रही है और आंखें सुन रही हैं... कभी आंखें कहती हैं और लब सुनते हैं.... पर वक्त ! वो किसी की नहीं सुनता.. वो तो बीतता जा रहा है.. अरे काफ़ी देर हो गयी अब चलना चाहिये हमें... ऐसा कहा किसी ने.. या मह्सूस किय......... दोनों उठ खड़े हुये.. चलने को...


पर मुलाकात खत्म नहीं हुई थी.. दोनो सिन्दूरी सड़क पर साथ चल रहे थे.. बस कुछ देर और... फ़िर तो जाना ही है.. अपनी अपनी राह पर.... "मुझे तुमसे मिलना बेहद अच्छा लगा... हां वक्त कब बीत गया पता ही नहीं चला....... वक्त? .... नहीं.... वक्त नहीं कई जन्म बीते हैं हमारे... एक साथ... और इस बार भी मिलना ही था हमें.... नहीं पता ये क्या है.. प्यार... आकर्षण .. या फ़िर कुछ और... पर तुम मुझे बहुत अच्छी लगी... मैं तुमसे रोज़ मिलना चाह्ता हूं.. मिलोगी ना.... ? " उसने बस नज़रें झुकायी... और मुस्कुरा कर देखा उसे.. और चल दी....


अब दोनों रोज़ मिलते हैं.. हर शाम... सिंदूरी सड़क पे साथ चलते है... फ़िर से बिछ्ड जाने को... हां, बिछ्ड़ जाने को... इस जनम में बस यूं ही मिल सकेंगे वो.... एक ना हो सकेंगे कभी... उसकी आंखें भीग जाती हैं.. ये सोच कर... क्यूं इतनी देर से मिले तुम... जब तुम्हें और मुझे दोनों को... कुछ और वादे निभाने हैं.. ये कैसा साथ है जो होकर भी नहीं... नहीं मिलना था हमें...... और वो मुस्कुरा पड़ता..... दर्द के निशां .. चेहरे पे होते... कहता .. " ये नाटक मत करो तुम... रोते हुये बिल्कुल अच्छी नहीं लगती तुम... गंदी लगती हो... एकदम बुरी.. मगरमच्छ के आंसू" और वो मुस्कुरा पड़ती......


"मैंने वादा किया है ना तुमसे... मैं हूं रहूंगा.. हमेशा... तुम्हारे आस - पास....... " " झूठ बोलते हो तुम... ऐसे कोई साथ नहीं देता...... " वो टोकती........ वो देखता उसे... और वो फ़िर नज़रें झुका लेती.. चुप... " मैं जो कहता हूं सुनो... मैं अब भी सथ हूं हर पल... और वादा करता हूं .. हर जन्म .. हर रूप में साथ दूंगा... फ़िर कभी देर नहीं होगी.. बस तुम विश्वास करो.. साथ दो........ " उसकी नज़रें झुकी ही रहीं.. पर आंखों में आंसू नहीं विश्वास था........


और प्रेम.... वो बह्ता रहा... इस धड़कन से उस धड़कन तक... अविरल...... आज भी बहता है.. .. चुपचाप... पर मिलन को आतुर.. व्याकुल.... शायद क्षितिज के उस पार.... !"




Sunday, October 5, 2008

तुम से ...


रात अमावस की है....

मगर याद की वादी में....

तेरे प्यार का चांद खिला है....



उसी चांदनी से ... भीगा मेरा मन....

रूप सुनहरा मेरा खिला है...



तेरे ही प्रेम का सोलह-श्रृंगार है...

तुझे छूकर ही... ’मन’ बहका-बावरा हुआ है....



नैना -चंचल.. ठहरे हैं तेरी राह पर...

तेरे एहसास से... तन मेरा महका हुआ है...



तुम ही तुम हो मुझमें.... मैं कहां हुं....

तुम से ही मिलकर... तुम में खोकर.......

मैंने सब पा लिया है...........



बहुत दूर हो तुम मुझसे... लेकिन...

तुमने मेरा हर पल बांध लिया है....

संग तुम्हारा हर धड़कन में....

तुम्हें इस ही नहीं....

मैंने हर जनम में पा लिया है...
"तुम्हें पाने की चाह नहीं ’सांवरे’... बस पूर्ण समर्पण का भाव है..
तुम तो मेरे ही हो सदा से.. प्यास में भी बस तृप्ति का एह्सास है"


Saturday, July 12, 2008

एक बार तुम भी..............!!!!






एक रात अचानक... नींद से उठो तुम...



याद आये तुम्हें मेरी....



हर तरफ़ मुझे ढूंढो तुम...



ना खुद का... ना वक्त का होश हो तुम्हें...



मैं तुम्हारी नहीं... ये भी भूल जाओ तुम...



बस मेरी ही मेरी तड़प...



बस मेरी ही मेरी याद...



और बेचैन रहो तुम.... तुम पुकारो मुझे..



और मेरी सदा ना मिले...



बेबसी में जलो तुम...



बहुत तड़पाया है... तुम्हारी याद ने मुझे हर पल...



बिन जान जीती हूं हर पल....



बिना दिल धड़कन चलती है.....



चाहती हूं बस एक बार..... कुछ ऐसा ही.....



महसूस करो तुम....



एक बार मेरी जान... मुझे जियो तुम....!!!!!

Thursday, March 20, 2008

एह्सास की तलाश......


साथ होकर भी जाने क्यूं.... तन्हाई का एह्सास है...

हाथ थामे रहता है कोई... फ़िर भी लगता खाली हाथ है...

जाने कैसा सूनापन गहराया.....

चलती हूं जिस भीड़ में.... इंसानों का नहीं....

बस परछांईयों का साथ है.....

'सच'... में जीने को जाने क्यूं.... दिल करता ही नहीं....

अजनबी रिश्तों में.... जिंदगी की तलाश है.....

ख्वाब नहीं कोई..... बस एक झूठा सच है ये.....

जलेगा नहीं दीप कोई..... ये बुझती लौ सी आस है....

भटकता है 'मन' दर-ब-दर... खाता है ठोकरें......

इसे उजड़ी बस्ती में.... घर की तलाश है....

तेज हवाओं के रुख से.....

यहां डरता है कौन.....???

ये तो बारिश से... भड़कने वाली आग है.....

बुझे- बुझे से जज्बात..... सहमी-सहमी जुबां....

सूखे हुये पानी से.... गला अब तर होता नहीं.....

ये गीले आंसूओं से.... बुझने वाली प्यास है....

जाने कहां खोया है खुद को.....

मुझे ही नहीं.... आईने को भी.....

मेरे अक्स की तलाश है........