Friday, October 15, 2010

एक टुकड़ा धूप का...

चित्र- सौजन्य: Google

एक टुकड़ा धूप का... फैला है...
खिड़की से उतर.. मेरे कमरे में...
उज्जवल.. उष्ण...
बिल्कुल तुम्हारे स्पर्श सा...

सर्द... सीली.. हवा...
जीवंत हो रही है...
कोमल.. ताप से...

बोझल साया... गुम हुआ...
स्फूर्त-देह... प्रफुल्ल-हृदय...
तुमने फूंके प्राण से....

सौम्य प्रकाश...फैला मुझ पे..
आँखें खोली...मैंने...
चिर-तिमिर के.. अंक-पाश से...

रोशन.. विस्तृत.. व्यक्तित्त्व तुम्हारा..
तुम... भानु-ज्योत सम..
मैं पुलकित-आलोकित...
रूप मेरा.. सुर्य-मुखी सम...

मैं खड़ी.. धूप के टुकड़े के बीच..
सोचती हूं तुमको...
तुम्हारी सौम्य मुस्कान...
और मैं.. गुम.. तुम्हारे बाहुपाश में...

Thursday, February 11, 2010

’अमर्यादित’...


बस देह से देह के घर्षण से...
कोई अपवित्र नहीं हो जाता...
यूं लुट नहीं जाती ’इज्जत’ किसी की..
यूं नहीं हो जाता कोई ’अमर्यादित’...
तुमने किसी ’मर्यादा’ का उल्लंघन किया नहीं...
तुमने नहीं किया किसी सीमा का अतिक्रमण...
सीमा लांघी हैं... किसी और ने अपनी मर्यादाओं की...
उसी ने जगाया है... खुद में सोये शैतान को...
इससे तुम नहीं हुई कलुषित... कलंकित...
’इज्ज्त’ का संबंध तुम्हारी देह से नहीं..
तुम्हारी आत्मा से है....
ना तुम अपराधी... ना तुम्हारा कोई दोष है...
तुम ना सर झुकाओ .. ना नजरें चुराओ...
’बलात्कार’ ... ये शब्द तुम्हारे नहीं...
इस ’समाज के माथे का कलंक’ है....
तुम कल भी हमारी थी...
तुम आज भी अपनी हो..
तुम सर उठाओ.... आगे बढ़ो....
उन वहशी.... दरिंदों को सजा दिलाओ..
यही तुम्हारा हक है...
तुम नारी नहीं नारायणी बनो...
त्रिशूल थाम साह्स का....
नेत्र खोल अपने प्रतिघात का...
महिषासुर मर्दिनी बनो....
इज्जत अगर नहीं होती...
तो वो नहीं होती...
ऐसे... मानवरूपी दानवों को...
तुम्हारा तो सिर्फ़... शरीर..
क्षतिग्रस्त होता है....
इन घावों को भरने दो तुम....
कुरेदों जड़ें... इन विष-बेलों की....
उखाड़ फेंकों इन्हें...
तुम जीओ... जीना मुश्किल कर दो उनका...
उम्मीद है... ऐसा कर पाओ तुम..
इस समाज के दोहरे मापदंडों से...
ना डरो तुम...
साथ तुम्हारा... देंगे हम.....
क्यूंकि अपनी - अपनी आत्मा को...
हमें स्वयं 'मर्यादित' रखना है...

Wednesday, February 3, 2010

जुनून..


तन्हाई दिल में घर किये बैठी है....
अंघेरे मकां का खौफ़ नहीं मुझको....


आहिस्ता - आहिस्ता दर्द बरसता है....
टूटी छत से ज्यों पानी रिसता है....
मेरी नसों में लावा बहता है...
पैरों तले अंगारों का खौफ़ नहीं मुझको.....


रोम - रोम मेरा दिये सा जलता है...
अस्थियों का पिंजर चटकता है....
मेरी आंखों में पिघला शीशा रहता है....
जलते सूरज का खौफ़ नहीं मुझको.....


पल - पल साथ तू जुदा सा चलता है...
अजीब ढ़ब तेरे प्यार का लगता है...
लबों से दिन - रैन तेरा नाम सुमरता है....
रिसते ज़ख्मों के लहू का खौफ़ नही मुझको....


ज़िद.. जुनून.. दीवानगी.... दिलो - दिमाग में..
घर किये रहती है.....
इस बेदम... थकी दुनिया के.. नकाबी चेहरों..
का खौफ़ नहीं मुझको.....

Wednesday, January 13, 2010

आफ़ताबी आगोश...


रात की खुमारी को....
जब सुबह.. आफ़ताब ने आगोश में भर लिया....
नम के होठों के फूल...
गर्म सीने पे हमने खिला दिये....


आफ़ताबी आगोश... मुझे कसता रहा...
मैं बर्फ़ानी नदी सी पिघलती रही....
पैरों तले.. ज़मी बहने लगी...
ज़िस्म धूप सा जलता रहा...



ख्वाब का कंबल ओढे... दो ज़िस्म सिमटे रहे....
थरथराती सांसों को... लब पीते रहे....
मेरी पलकें.. उसकी धड़कनों को.. छूती रहीं..
मेरी खुश्ब में .. वो मिलता गया..
मैं खुद को खोती रही....



बंद पलकें छू के... वो लौट गया...
नींद की.. गोद में.. लब मुस्कुरा दिये...
कानों में .. जाने क्या वो कह गया...
हया ने गालों पे हमारे... सुर्ख गुलाब खिला दिये......


वो साया अंबर सा.... मैं कोमल गीली जमीं सी..
वो गहरा सागर सा... मैं खोयी उसमें नदी सी...