स्याह, तन्हा..रात ने जो पाया संग तेरा..
आज सुबह है खिली-खिली सी...
रात भर पगली हवायें तुझसे लिपटी रहीं..
तेरे जिस्म का संदल छूती रहीं..
सर्द हवाओं को जो तुमने सहला दिया...
तभी आज पुरवा भी है महकी-महकी सी...
आसमां पे छिटकी धवल,चंचल चांदनी...
तुम्हें अपने आगोश में भरती रही..
ज्योत्सना ने जो किया आंलिगन तेरा..
तो भोर की लाली भी है गरमाई सी..
बावरी काली बदरिया तुम पर झुकी रही..
तुम छेड़ते रहे घनघोर घटाओं को...
घटाओं ने जो छुपाया वदन तुम्हारा...
सुबह ने ली है अलसाई,अंगड़ाई सी...
ये फ़िज़ायें तुमसे अठखेलियां करती रहीं...
कभी बिखरती, कभी तुममें सिमटती रही...
शोख कलियों को जो चूम लिया तुमने...
आज फूलों पे शबनम भी है शरमाई सी...
झील की लहरें करवटें बदलती रहीं..
ठंडी रेत तेरे पैरों तले पिघलती रही..
तुमने जो वादियों का दामन ओढा..
सुबह आसमां ने करवट बदली अनमनी सी...
रात ने जो पाया संग तेरा...
आज सुबह है खिली-खिली सी...
6 comments:
अच्छा लिखा है मान्या जी आपने । काफ़ी सम्वेदनशील लगती हैं आप मुझे । या कम से कम आपकी रचनायें तो यही बताती हैं ।
ऐसे मै इन मामलों मे एकदम अल्पज्ञ हूँ लेकिन आपकी अनुमति से एक टिप्पणी करना चाहता हूँ आपकी इस कविता पर ।
आसमां पे छिटकी धवल,चंचल चांदनी...
तुम्हें अपने आगोश में भरती रही...
अब ये जो उपर दो लाइने हैं, ये शुद्ध-हिन्दी और उर्दू काफ़ी मिक्स हो गया इनमे । तो कभी कभी थोड़ा अजीब लगता है । भाषा की शुद्धता बनाये रखने का प्रयास करें (चाहे हिन्दी हो या उर्दू) ।
ऐसे मुझे इसमे सबसे अच्छी पंक्ति ये लगी-
स्याह, तन्हा..रात ने जो पाया संग तेरा...
आज सुबह है खिली-खिली सी...
उम्मीद करता हूँ आप मेरी टिप्पणी को अन्यथा नही लेंगी । लिखते रहिये और पढ़ाते रहिये ।
सधन्यवाद
अभिषेक
झील की लहरें करवटें बदलती रहीं..
ठंडी रेत तेरे पैरों तले पिघलती रही..
तुमने जो वादियों का दामन ओढा..
सुबह आसमां ने करवट बदली अनमनी सी...
bahut hi khubsuart likha hai manya very touching ...
सुन्दर स्त्री भाव उजागर करती रचना...
मेरी आरजू तो देखो कभी दिल के पास ला कर
कभी दिल के पास ला कर, कभी दिलरुबा बना कर
इसे मांग के कुछ न मांगूं, और मांग में सजा लूं
ये हसीन दर्द बेजोड, जिसे मैं गले लगा लूं
kabhi yahaan bhe aayen
http://hashiya.blogspot.com/
शुक्रिया अभिषेक जी, जो इतना वक्त दिया और मेरी रचनाओं को पसंद किया.. रही बात हिन्दी एवम उर्दू के प्रयोग की.. कोई भी रचना लिखते समय मेरा ध्यान केवल भावों के प्रवाह पर होता है.. जो शब्द आ जाये प्र्वाह में आ जायें वही स्वीकार लेती हूं.. और वही अच्छा लगता है मुझे.. और originality भी बनी रहती है...
आपकी टिप्प्णी का शुक्रिया.. मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगा..
कविताएँ तो बहुत सी हैं पर जो कहने में औरों को मात करता है वो सुंदरम होती है…शब्दों का प्रवाह तो निश्चित ही बेहतरीन है पर पुन: तुम्हारे जैसी अंतरभाव प्रेरक जिज्ञासा और प्रीत के संगम का हलका अभाव दिखा…।
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