सच बङी सूनी-सूनी है.... आंखें मेरी...
इनमें लौ बुझ चुकी है ज़िंदगी की..
फ़िर तुमने भी सपनों की उम्मीद कहां की....?!!
एक अरसे से खामोश हैं.... लब मेरे...
इन पर छाई है एक चुप सी खामोशी....
फ़िर तुमने भी सदा की उम्मीद कहां की...?!!
पत्थर सा लगता है ये.... दिल मेरा...
इसमें कहां बचा है एह्सास कोई...
फ़िर तुमने भी ज़ज़्बातों की उम्मीद कहां की....?!!
खुद से ही हूं आजकल... अजनबी मैं....
इस राह पर कोई मेरे साथ नहीं....
फ़िर तुमने भी मंज़िलों की उम्मीद कहां की....?!!
10 comments:
COOL!
some real indepth work!needs understanding...lot is said in few words!commanding!
all my good wishes..
keep this kind of work up!
दिल के भावों से सजी सुंदर रचना है, बधाई.
बहुत सुन्दर ! किन्तु क्या 'सपनों कि' आदि में 'की 'नहीं होना चाहिए ?
घुघूती बासूती
मान्या जी, मान्या जी, मान जाइये, घुघूती बासूती जी का कहा सुधार जाइये.
तेरी उम्मीद के खातिर....
रूप बदल आऊँगी मैं....
....तू उम्मीद तो कर!!
बहुत अच्छी लगी कविता ।
खुद से ही हूं आजकल... अजनबी मैं....
इस राह पर कोई मेरे साथ नहीं....
फ़िर तुमने भी मंज़िलों की उम्मीद कहां की....?!!
वाह! बहुत सुन्दर लिखा है।
तन्हाई का सुन्दर वर्णन !
बहुत सुन्दर कविता है....
पर आपसे इससे कम की उम्मीद कहाँ की थी.....
very beautiful...
खुद से ही हूं आजकल... अजनबी मैं....
इस राह पर कोई मेरे साथ नहीं....
फ़िर तुमने भी मंज़िलों की उम्मीद कहां की....?!!
bahut hi sunder likha hai
Aadaab.
Net pe Hindi me apna blog banane ke liye yahan-wahan bhatkate huye aapka Kavita se do-char hone ka mauka mila.
aapki rachnayen dard ki jheel sa ehsas deti hain. Badhayi.
Kya aapka koi collection publish huwa hai?
Witt wishes
zakir
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