कई दिन हुये तुमने कोई बात नहीं की...
तुम मौन कह्ते रहे.. मैं मौन सुनती रही...
निःशब्द, मौन तुम एह्सास बने रहे..
वैसे पहले भी तुम कहते कहां थे..
बस तस्वीरें बनाया करते थे सपनों की..
और मैं उन सपनों में जी लिया करती थी... कुछ पल...
तुम्हारे शब्द.. स्वर नहीं थे.. सजीव चित्र थे..
कई रंग बिखेरा करते थे तुम सपनों में...
जब तुम कहते थे..
क्या मिलने आउंगी तुमसे नदी किनारे..
गुलाबी साङी पहन... ज़ुल्फ़ें बिखराये..
जब मेरे गालों को छेङती होंगी बिखरी लटें..
तो क्या इज़ाज़त दूंगी तुम्हें..
उन चंचल लटों को संवारने की...
और मैं बस मुस्कुराया करती थी...
कभी पूछ्ते थे तुम...
क्या तुम्हारे संग चलूंगी एक नाव पर..
बैठूंगी तुम्हारे संग.. तुम्हारे करीब..
देखूंगी बलखाती लहरों का खेल...
और जब बह्ती हवा में...
मेरा आंचल उङता होगा..
तो क्या तुम्हें.. अपना दामन थामने दूंगी...
और मैं फ़िर हंस देती थी...
जब तुमने कहा था...
क्या प्रेरणा बनूंगी तुम्हारी तस्वीरों की..
बैठूंगी.. ? मौन,निश्च्ल...
बिल्कुल मूरत सी तुम्हारे समक्ष..
और तुम मुझे आकार दोगे रेखाओं से,रंगों में..
क्या मैं तुम्हें अपनी कल्पनओं में..
रंग भरने दूंगी..
और मैं हंसकर लौट जाती थी..
याद है तुमने कहा था कि...
क्या कभी ले सकोगे...
मुझे तुम अपनी बाहों में...
क्या छू सकोगे वो संदल, वो रेशम..
क्या मेरे सुनहरे अधरों का..
कोमल स्पर्श तुम्हारे अधर कर सकेंगे..
क्या मैं तुम्हें.. अपने आगोश में..
कुछ पल जीने दूंगी...
और मैं मौन रह गयी थी...
जानती हूं मैने कभी जवाब दिया नहीं..
ना ही तुम्हें रंग भरने दिये सपनॊं में..
पर तुम्हारे वो अधूरे ख्वाब अनजाने मे..
मेरे ख्वाबों को पूरा कर गये...
पर तुम कब तक कहते अकेले..
कैसे लिखते अधूरी कहानी..
और फ़िर तुम मौन होते गये..
अब कई दिन बीत गये..
तुमने कोई बात नहीं की...
11 comments:
पर तुम्हारे वो अधूरे ख्वाब अनजाने मे..
मेरे ख्वाबों को पूरा कर गये...
पर तुम कब तक कहते अकेले..
कैसे लिखते अधूरी कहानी..
और फ़िर तुम मौन हो गये..
फ़िर कई दिन हो गये..
तुमने कोई बात नहीं की...
बहुत सुन्दर, श्रूंगार और विरह रह का अदभुत मिश्रण। बहुत सुन्दर। एक अच्छी कविता। (शुकुल कविता पढो, फिर कहना कुछ)
बहुत ही सुन्दर रचना।
कुछ भी कहना ठीक न होगा, बस अद्भुत कविता है। हाँ, यह ज़रूर कहूँगा, मैने यह कविता एक के बाद एक ४-५ बार पढ़ी। और थोड़ा ठेंठ, गँवार रूप मे बोलूँ, तो आपने हद कर दी।
कविता को अनन्य रुपों में तुमने जीने की कोशिश की है और शायद सफल भी रही हो लेकिन प्रस्ताव
के भाव स्वीकार्य के भाव से घनीभूत हो गये हैं और "मान्या" की अन्य लिखी कविता का यह उद्घोष है कि इसमें वो सहजता पूरी नहीं हो पाई जो "प्रेम की भाषा" बने।
सजीवता का ध्यान तो है किंतु पता नहीं मुझे ऐसा लगा कि तुमने थोड़ी जल्दी में लिख डाला…।
मान्या ,तुमने कहा कि तुम्हें मान्या जी न कहूँ सो आप से तुम पर आ गई हूँ । तुम्हें समझने का यत्न कर रही हूँ । यदि उचित समझो तो मुझे ई मेल करना । माँ समान या तुमसे बड़ी उम्र की हूँ । आगे तुम्हारी इच्छा ।
घुगूती बासूती
जीतू के कहने से कविता पूरी पढ़ी। अब हमें कविता की समझ तो है नहीं लेकिन मौन रहना अच्छी बात नहीं। बोलचाल होते रहना चाहिये। अच्छा लगा पढ़कर!
Hi.my blog is playing up. only the header shows and the text does not. My id is ghughutibasuti@gmail.com
thanks
ghughutibasuti
वैसे तो सारी कविता ही उम्दा है खासकर बहुत अच्छी लगी ये लाईन
तुम मौन कह्ते रहे.. मैं मौन सुनती रही...
सब कह रहे हैं, इसका मतलब बहुत अच्छी भाव विभोर कर देने वाली कविता है।
आपकी कविता मे भाव काफी सहज हैं, हर कोई जो प्रेम के क ख ग ...से वाकिफ होगा वो जानता होगा कि विरह..और न जाने क्या-क्या देख कर भी प्रेम जिन्दा रहता है. खासकर ये लाईने----
"कभी पूछ्ते थे तुम...
क्या तुम्हारे संग चलूंगी एक नाव पर..
बैठूंगी तुम्हारे संग.. तुम्हारे करीब..
देखूंगी बलखाती लहरों का खेल...
और जब बह्ती हवा में...
मेरा आंचल उङता होगा..
तो क्या तुम्हें.. अपना दामन थामने दूंगी..."
मुझे काफी पसंद आया. आप कविताओ के भावो काफी संजीदगी से पेश करती है.
धन्यवाद
गिरीन्द्र
अब कई दिन बीत गये..
तुमने कोई बात नहीं की..
बहुत सुंदर भाव हैं मान्या ...बधाई !!
bahut sundar bhaav likhe hain manya aapne ..accha laga padhana....
कैसे लिखते अधूरी कहानी..
और फ़िर तुम मौन होते गये..
अब कई दिन बीत गये..
तुमने कोई बात नहीं की...
yah lines bahut kuch kah gayi ...ya sahyad mere dil ke kareeb thee ...shukriya
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