खता हया-ए-हुस्न से हुयी ऐसी भी क्या..
जो वफ़ा-ए-इश्क इस कदर रूठ गया...
हुस्न तो सदा ही बिखरा है टूट कर...
पनाह-ए-इश्क की बाहों मे, पर आज..
ज़रा सी दिल्लगी की ऐसी मिली सज़ा..
दामन-ए-हुस्न से इश्क कहीं छूट गया..
इश्क की गर्मी से तो हुस्न हमेशा पिघलता रहा..
रात दिन तमन्ना-ए-इश्क में जलता रहा...
इश्क जब भी मिला बस पल दो पल के लिये...
और हर बार रूह-ए-हुस्न को और तन्हा कर गया..
जलवा-ए-हुस्न को क्या बयां करे कोई...
काबिले तारीफ़ तो अदा-ए-इश्क है आजकल..
चाहा हुस्न को इश्क ने तड़प के इस कदर..
कि अपना दर्द वो हुस्न-ए-दिल में छोड़ गया...
कैसे शिकवा भी करे सदा-ए-हुस्न...
खामोश इश्क से उसकी बेरुखी पर...
यही तो लिहाज़ है दायरा-ए-मोह्ब्बत का..
वो तो बस दायरे का एक और वर्क मोड़ गया..
खाम्ख्वाह हुस्न को बेवफ़ाई का इल्ज़ाम ना दीजिये..
हुस्न तो आज भी जगा है इंतज़ार-ए-इश्क में..
वरना कब की बंद कर ली होती उसने पलकें अपनी..
गर खुली आंखों में वो उम्मीद-ए-इश्क ना छोड़ गया होता..