चुपचाप, बेआवाज़..
ख्वाब सारे टूट कर बिखर गये...
टूकङों की चुभन से दर्द हुआ ऐसा..
मानो दर्द हुआ ही नहीं..
हां कुछ हुआ ऐसा कि.. कुछ हुआ ही नहीं..
हौले-हौले धीरे से..
वो कुछ कह कर गया..
हवा की सरसराहट में..
मैंने कुछ सुना ऐसा..
मानो कुछ सुना ही नहीं...
हां कुछ हुआ ऐसा कि.. कुछ हुआ ही नहीं..
अचानक यूं ही, चुप सी..
सांसें सहम गईं..
सहमी धङकन ने कुछ कहा ऐसा..
मानो कुछ कहा ही नहीं..
हां कुछ कहा ऐसा कि.. कुछ हुआ ही नहीं..
अजनबी, नामालूम सा..
दिल से गुजर गया कोई..
किसी को मन ने चाहा भी ऐसा..
मानो कुछ चाहा ही नहीं..
हां कुछ हुआ ऐसा कि कुछ हुआ ही नही..
'' दिल रो दिया पर आंख रो ना सकी..
दर्द यूं ही होता रहा दुनिया समझ ना सकी"
7 comments:
नमस्कार मान्या,
मेरी हौसलाफ़ज़ाई के लिये शुक्रिया । मैने अभी अभी आपका ये ब्लॉग पढ़ा । काफ़ी अच्छा लगा । क्या आप ख़ुद से ही लिखती हैं । मै अभी धीरे धीरे कर के और भी लेख पढ़ता हूँ :-)
चुपचाप, बेआवाज़..
ख्वाब सारे टूट कर बिखर गये...
टूकङों की चुभन से दर्द हुआ ऐसा..
मानो दर्द हुआ ही नहीं..
हां कुछ हुआ ऐसा कि.. कुछ हुआ ही नहीं..
bahut hi sundar likha hai ..dil ko chu gayi tumhari yah lines ...
भावों का उतरा रस ऐसा मानों
चरम बिंदु पर पहुंच कर भी लगा
जैसे कुछ हुआ ही नहीं…।
लिखा तो सुंदर है किंतु अंतिम पंक्ति
की अभिव्यक्ति इस कविता के मुख को
सिकोड़ दी हैं…दिल से किसी के गुजर जाने के बाद
ऐसी सुध होती है मानों मेरे आस-पास कण की
स्वभाविकता तक बदल जाती है…तुम कहती हो बदला ही नहीं!!
बहुत ही अच्छा लगा एक शायरा को देखकर जो असल और सच्ची शायरी लिख रही हैं
लगी रहिये इसी तरह से
अच्छी कविता थी
आपकी कविता पढी, अच्छी लगी, मन की बातों को आप सपाट तरीके से पेश कर रही है. शायद कविता की मौलिकता भी यही होती है.(वैसे मैं कविता से ज्यादा वाकिफ नही हूं,तो भी कविता मेरे पसंदीदा साहित्य में एक है.)
खासकर आपकी ये बात कि-
'' दिल रो दिया पर आंख रो ना सकी..
दर्द यूं ही होता रहा दुनिया समझ ना सकी"
मुझे अच्छी लगी.
आप ऐसी ही रचनाए हमलोगो के सामने परोसती रहें, बस .....
हौले-हौले धीरे से..
वो कुछ कह कर गया..
हवा की सरसराहट में..
मैंने कुछ सुना ऐसा..
मानो कुछ सुना ही नहीं...
दिल रो दिया पर आंख रो ना सकी..
दर्द यूं ही होता रहा दुनिया समझ ना सकी"
बहुत सुन्दर, बहुत सही। यार ये कविता कम, भावनाओं का ज्वार-भाटा ज्यादा दिखता है।
धन्यवाद.... अभिषेक जी , की आपको मेरी कविता इतनी पसंद आई.. यूं ही हौसला बढाते रहिये..
शुक्रिया रंजू.. जो इतनी सराहना की..
दिव्याभ जी शुकगुजार हूं जो इतने अच्छे शबद कहे.. रही बात अंतिम पंक्ति की तो वो ऐसा है की.. दिल से गुजरने वाला नायक और मह्सूस करने वाली नायिका दोनों ही निःशब्द थे.. भावों को एह्सासों को जब अभिव्यक्त करने की इज़ाज़त न हो.. तो यही कहना बेहतर है की कुछ हुआ ही नहीं.. यही कविता का सार है.. कि सब कुछ होकर भी कुछ हुआ ही नहीं.. क्यूंकि जो हुआ वो दृश नहीं हो सकता..
आपका बहुत धन्यवाद गिरीन्द्र जी जो इतना समय निकालते हैं मेरी रचनाएं पढने और उन पर ईतनी सार्थक टिप्पणी देने के लिये.. मुझ एतो नहीं लगता कि आप कविता से वाकिफ़ नही हैं.. आप भाव तो खूब समझ्ते हैं.. शुक्रिया..
बहुत धन्यवाद जीतू जी .. चलिये लगता है अब आपको भी ये कविताओं का ज्वार-भाटा समझ में आने लगा है.. बढिया है..
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