सोचती हूं क्या हमेशा नायिका बन लिखती रहूंगी गीत प्रेम के, विरह के..
या फ़िर हमेशा प्रश्न करती रहूंगी किसी अन्य से..
क्या हमेशा उलझी रहेंगी मेरी रचनायें कहीं और 'स्व' से दूर..
क्यूं नहीं मैं कहती कुछ खुद में झांक, अपने सत्य पर...
"आज तक सिर्फ़ अपनी व्यथा का चित्रण करती रही,
सवाल करती रही अपनी वेदनाओं पर,
पर क्यूं नहीं कभी उन हॄदयों की पीङा को देखा,
जो मैंने दी थी, क्यूं नहीं उन आंसूओं को समझा,
जिनका कारण मैं थी..
कैसे भूली उस दर्द को जो सहे गये मेरे लिये...
ये कैसी संकुचित सोच मेरी जो 'स्व' पर अटकी रही"
"सवाल बहुत किये मैनें औरों से उनकी गलतियों पर,
बातें बहुत की मैंने अपने उसूलों की,
माफ़ नहीं कर पाई कभी किसी भूल को,
पर क्या स्वयं की गलतियों को देखा मैंने..
क्यूं स्वयं को क्षमा कर दिया हर बार...
ये कैसा 'न्याय' था मेरे आदर्शों का.."
या फ़िर हमेशा प्रश्न करती रहूंगी किसी अन्य से..
क्या हमेशा उलझी रहेंगी मेरी रचनायें कहीं और 'स्व' से दूर..
क्यूं नहीं मैं कहती कुछ खुद में झांक, अपने सत्य पर...
"आज तक सिर्फ़ अपनी व्यथा का चित्रण करती रही,
सवाल करती रही अपनी वेदनाओं पर,
पर क्यूं नहीं कभी उन हॄदयों की पीङा को देखा,
जो मैंने दी थी, क्यूं नहीं उन आंसूओं को समझा,
जिनका कारण मैं थी..
कैसे भूली उस दर्द को जो सहे गये मेरे लिये...
ये कैसी संकुचित सोच मेरी जो 'स्व' पर अटकी रही"
"सवाल बहुत किये मैनें औरों से उनकी गलतियों पर,
बातें बहुत की मैंने अपने उसूलों की,
माफ़ नहीं कर पाई कभी किसी भूल को,
पर क्या स्वयं की गलतियों को देखा मैंने..
क्यूं स्वयं को क्षमा कर दिया हर बार...
ये कैसा 'न्याय' था मेरे आदर्शों का.."
"अपने हर विचार को सही, अपने हर लक्ष्य को निश्चय बना,
आगे बढती गई.. जो चाहा उसे पाना है,
हर बार ये ज़िद करती रही,
'आधुनिक स्वतंत्र विचार' ले कर सबसे लङती रही,
और गर्वान्वित भी हुई अपनी हर विजय पर..
पर कैसे आहत हुये दिलों के घाव देख ना पाई.."
"अपने नारी मन की व्यथा को खूब रचा हर बार,
अपनी व्याकुलता सदा व्यक्त करती रही,
अपने आहत मन की पुकार को हर बार सुनाया,
पर उस पुरुष मन को पहचान ना पाई,
जो आहत हुआ कभी मेरी निष्ठुरता से...
कैसे उस मौन, स्तब्ध नायक की पीङा समझ ना पाई.."
"जाने जीवन पथ पर कहां से कहां चली आयी,
हर सुख में एक और सुख की आस,
हर आकंक्षा में एक नयी अभिलाषा,
बस पाने और पाने की चाह में खोई रही,
ये कैसी लालसा मेरे मन की...
क्यूं मैं कभी कुछ त्याग ना पाई..."
"हा ! आज धिक्कारती है मुझे आत्मा मेरी,
ये कैसी स्वार्थ सिद्धी में उलझी रही,
आज मूक हूं, स्तब्ध हूं अपने सामने खङे..
इस सत्य के सवालों पर..
इन अंधेरे गलियारों में भटकी मेरी सोच,
त्राण मांगती है प्रकाश का.."
"पर अब शायद निशा होने को है..
ये अंधकार आगे बढता मुझे ग्रसने को है.."
7 comments:
कविता बहुत सुन्दर है, लेकिन कुछ पंक्तिया तो बहुत अच्छी बन पड़ी है:
जाने जीवन पथ पर कहां से कहां चली आयी,
हर सुख में एक और सुख की आस,
हर आकंक्षा में एक नयी अभिलाषा,
बस पाने और पाने की चाह में खोई रही,
ये कैसी लालसा मेरे मन की...
क्यूं मैं कभी कुछ त्याग ना पाई...
Beautiful thoughts Manya ji. The day u realise this truth, u have grown up.It takes lots of guts and maturity to realise this.i think u have realised this rather early in life. i think what took us decades to learn ur generation is learning much faster. v impressive. I especially liked ur attempt to understand the 'purush mun '
Kudos to u.Keep it up!
घुघूती बासूती
ghughutibasuti.blogspot.com
miredmiragemusings.blogspot.com/
भावो व भावनाओ का सुन्दर चित्रण किया है आप ने. मेरी रचनाओ पर टिप्प्णी कि लिये धन्यवाद.
"पर अब शायद निशा होने को है..
ये अंधकार आगे बढता मुझे ग्रसने को है.."
हर बार की तरह आपकी रचना मन की भावनाओं से ओतप्रोत है ...बधाई !!
wakai mein tumhara prayaas accha laga!!koshish nahi keh sakta puri hai per haan imandar jaroor hai...!!!
well,i must appreciate ur strength..u tried to write wat is known to all but not accepted by thm..
but ya i found little haste,forced realisation..uljhan se nikli hui..chetna ka pravah..jo thodi kunthit dikhi mujhe..
ho sakta shyaad sabdh kam par rahe hon ya ye isliye hua kyonki sadhya kaafi jatil hai..aur sabdhbandhan se bahar ho gaye..
phir bhi..uttam koshish!
sundar bhaav....par kuch adhuri si lagi ...pata nahi kyu...
Post a Comment