Sunday, February 18, 2007

ऐसा क्यूं होता है...


दिल यूं ही धङकता है..

हौले-हौले कुछ कहता है..

जब सुनती हूं सरगम इसकी..

तुम आस-पास हो..

ऐसा मुझको लगता है..

तुम ही बोलो,

ऐसा क्यूं होता है...?


मन भी कुछ कहता है..

पंख लगा के ख्वाबों के..

ये दिल की वादी में..

उङ जाता है..

उन सपनों की ताबीर..

तुम हो ये कहता है..

कुछ कहो ना ..

ऐसा क्यूं होता है..?



जब भी तन्हा होती हूं..

दिल के खाली पन्ने पर..

रंग यादों के मैं भरती हूं..

बन जाती है...

तस्वीर तुम्हारी ही..

मैं क्या जानूं...

ऐसा क्यूं होता है..?


9 comments:

Ramesh Ramnani said...

बहुत खूब बहुत सुन्दर। सुबानअल्लाह।

सच मे मान्या जवाब नही तुम्हारी कविताओं का। बहुत दर्द है प्रेम का सीने मे जैसे।

उन्मुक्त said...

आपने केवल पेंग्विन केवल गोद लिया है या पेंग्विन यानि की लिनेक्स पर काम भी करती हैं।

Jitendra Chaudhary said...

जब भी तन्हा होती हूं..
दिल के खाली पन्ने पर..
रंग यादों के मैं भरती हूं..
बन जाती है...
तस्वीर तुम्हारी ही..
मैं क्या जानूं...
ऐसा क्यूं होता है..?


बहुत सुन्दर!

Anonymous said...

बहुत ही उम्दा रचना, पढ़ के मज़ा आ गया

Udan Tashtari said...

एक और खुबसूरत रचना के लिये पुनः बधाई.

Divine India said...

kyo ki aisaa hi hotaa hai...
u just missed to collect
the emotion of ur view...
i expect u to smethng extra..!!

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

आपकी कविता मन को बयां करती है, तकरीबन सभी कविताओं को पढा, अच्छा लगा. खासकर "मुझसे जुदा होकर.." काफी अपीलींग है.
वैसे कलकत्ता के लोगो की खासियत होती है कि वे बातों को सलीके से रखते है.
धन्यवाद
गिरीन्द्र नाथ
www.anubhaw.blogspot.com

Monika (Manya) said...

उन्मुक्त जी मैंने सिर्फ़ penguin को गोद लिया है.. ये लिनेक्स वगैरह नहीं जनती एक दोस्त ने मदद की थी..

रंजू भाटिया said...

जब भी तन्हा होती हूं..


दिल के खाली पन्ने पर..


रंग यादों के मैं भरती हूं..


बन जाती है...


तस्वीर तुम्हारी ही..


मैं क्या जानूं...


ऐसा क्यूं होता है..?

bahut khoob ....very nice manya