बहुत दिन हुये, तुमसे कुछ कहे हुये..
तुम तो ठहरे निर्मोही, याद करोगे नहीं..
सोचा मैं ही लिखूं तुम्हें एक पाती प्रेम की..
सोचती हूं कैसा होता जो तुम आज यहां होते..
"तुम पीताम्बर पहन जब बांसुरी बजाते..
मैं सोलह सिंगार किये भाव-विह्व्ल हो,
सुनती तुम में खोकर, पल-पल बजती निगोङी पायल..
ऐसे ही बीतता हर पल जो तुम होते मेरे संग।"
"अभी रुत सावन की नहीं आई तो क्या..
रुत प्रेम की लेकर आते तुम अपने संग,
और हम झूलते 'पुष्प-लता' के झूले में..
ऐसे ही कट जाता ये दिन जो तुम होते मेरे संग"
"ये तुम्हारा गोकुल नहीं, ना ही वृंदावन है ये..
यहां यमुना तट भी नहीं, ना ही गोपियों का संग,
फिर भी हम रास रचाते भागीरथी-तट पर..
ऐसे ही बह जाता हर क्षण जो तुम होते मेरे संग"
"जब दिन ढले सुनहरे सिंदूरी सुरज को..
आगे बढ ये सांवली सांझ लगाती गले,
होता मेरी गोरी काया से सांवरे जैसे तेरा मिलन..
ऐसे ही मिलते ये दिवस निशा जो तुम होते मेरे संग"
"तुम्हें याद करते-करते सांवरे ये दिन भी ढल गया..
मैं भी तुम संग यूं ही हर पल रहती, तुममें बसती,
जैसे ये मुई चांदनी रहे हर पल चंदा के संग...
ये रात भी करती मुझसे जलन जो तुम होते मेरे संग"
' अब और क्या लिखूं, ऐसा क्या जो तुम नहीं जानते सजन..
एक बार तुम स्वयम ही आ जाओ उत्तर बन..
और देखो कैसे दिये सी जली है हर पल ये विरहण'
16 comments:
वाह!
क्या तड़पन है, क्या विरह की बातें।
अमां एक बात बताओ, इत्ती छोटी सी उमर(सॉरी कोई मेरे से कवियत्री की उमर के बारे मे सवाल ना पूछे) मे तुम ये सब कैसे लिख लेती हो? शब्दों मे इतनी गहराई, तड़पन का चित्रण, ये सब कैसे भई?
बहुत अच्छा! तुम्हारी कविता के लिए भी बहुत बहुत धन्यवाद।
मान्या जी , सुन्दर कविता है । किन्तु एक बात बताऊँ ? अरे यदि वह होते भी, चाहे साक्षात कृष्ण ही होते, तो वे दिन भर अपने काम में लगे रहते, और घर आते भी तो शायद साथ में मनो मस्तिष्क में काम ही होता, जागते सारे पल फोन हाथ में लिए होते, और आप शायद उन्हें या फोन पर या फाइलों में उलझा देखती । तो ये हैं आधुनिक कृष्ण ! बाँसुरी की मधुर धुन तो नहीं कह सकती किन्तु फोन की मधुर घंटी अवश्य बजती । हाँ मोबाइल में यह सुविधा है कि आप उनसे कहकर बाँसुरी की धुन वाली घंटी बजवा सकती थीँ ।
घुघूती बासूती
ghughutibasuti.blogspot.com
मान्या जी , सुन्दर कविता है । किन्तु एक बात बताऊँ ? अरे यदि वह होते भी, चाहे साक्षात कृष्ण ही होते, तो वे दिन भर अपने काम में लगे रहते, और घर आते भी तो शायद साथ में मनो मस्तिष्क में काम ही होता, जागते सारे पल फोन हाथ में लिए होते, और आप शायद उन्हें या फोन पर या फाइलों में उलझा देखती । तो ये हैं आधुनिक कृष्ण ! बाँसुरी की मधुर धुन तो नहीं कह सकती किन्तु फोन की मधुर घंटी अवश्य बजती । हाँ मोबाइल में यह सुविधा है कि आप उनसे कहकर बाँसुरी की धुन वाली घंटी बजवा सकती थीँ ।
घुघूती बासूती
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मान्या जी , सुन्दर कविता है । किन्तु एक बात बताऊँ ? अरे यदि वह होते भी, चाहे साक्षात कृष्ण ही होते, तो वे दिन भर अपने काम में लगे रहते, और घर आते भी तो शायद साथ में मनो मस्तिष्क में काम ही होता, जागते सारे पल फोन हाथ में लिए होते, और आप शायद उन्हें या फोन पर या फाइलों में उलझा देखती । तो ये हैं आधुनिक कृष्ण ! बाँसुरी की मधुर धुन तो नहीं कह सकती किन्तु फोन की मधुर घंटी अवश्य बजती । हाँ मोबाइल में यह सुविधा है कि आप उनसे कहकर बाँसुरी की धुन वाली घंटी बजवा सकती थीँ ।
घुघूती बासूती
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मान्या जी , सुन्दर कविता है । किन्तु एक बात बताऊँ ? अरे यदि वह होते भी, चाहे साक्षात कृष्ण ही होते, तो वे दिन भर अपने काम में लगे रहते, और घर आते भी तो शायद साथ में मनो मस्तिष्क में काम ही होता, जागते सारे पल फोन हाथ में लिए होते, और आप शायद उन्हें या फोन पर या फाइलों में उलझा देखती । तो ये हैं आधुनिक कृष्ण ! बाँसुरी की मधुर धुन तो नहीं कह सकती किन्तु फोन की मधुर घंटी अवश्य बजती । हाँ मोबाइल में यह सुविधा है कि आप उनसे कहकर बाँसुरी की धुन वाली घंटी बजवा सकती थीँ ।
घुघूती बासूती
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वाह सुन्दर कविता। खुशी की बात है कि हमें समझ आने वाली कविताएं भी लिखी जाने लगी हैं। :)
घुघूती जी लगता है अपनी बात पर बहुत दृढ़ थी अतः चार बार वही टिप्पणी की है। :)
(मजाक कर रहा हूँ, गलती से हुई होगी)
मान्या जी, आपने पूरी पोस्ट बोल्ड तथा इटैलिक टैक्स्ट में लिखी है जो कि आंखों को अरुचिकर प्रतीत हो रही है। पूरी पोस्ट की बजाय केवल महत्वपूर्ण लाइनों को ही आवश्यकतानुसार बोल्ड आदि किया जाना चाहिए।
अथवा हो सकता है आपके टैम्पलेट में कुछ गड़बड़ हो क्योंकि टिप्पणियाँ भी इटैलिक दिख रही हैं।
बहुत सुंदर भाव हैं मान्या ......बधाई
वाह वाह, बहुत खुब. क्या शब्द चित्र बना है, अति सुंदर. और साथ का चित्र भी बहुत बढ़िया है, लिखते रहें. इंतजार रहेगा. बधाई.
मान्या ..विचारो की सोच तुम्हारी और मेरी बहुत हद तक मिलती है यह आज तुम्हारी इस कविता को पढ़ के जाना.....कुछ ऐसे ही मेने भी लिखा था की "जीवन के आँधियारे सारे बन जाते उजियारे ,पियु जब होते तेरे दिन रैन हमारे "...घुघूती जी का कहना सही है ...कहाँ फ़ुरसत मिल पाती है बाँसुरी की वोह धुन सुनने, सुनाने की ...बहुत ही सुंदर लिखा है तुमने ...बहुत अच्छा लगा पढ़ के ...!!
मान्या जी
इतनी सुन्दर कविता की तारीफ कविता में ही की जानी चाहिये पर क्या करें हम इस विधा में अनाड़ी हैं, बस हमारे मन के भावों को समझ लीजिये।
अच्छा ये बताइये उपर लगा चित्र भी आपने ही बनाया है? अगर आपने ही बनाय़ा है तो इतने सुन्दर चित्र के लिये एक बार और बधाई।
॥दस्तक॥
सुन्दर कविता है
अनन्य प्रेम की यह पाती पढ़ कर अपनी एक कविता की कुछ पंक्तियां याद आ गईं.प्रस्तुत हैं :
"कागज़ की नाव पर
तुम नहीं आ सकतीं
पर आ सकते हैं
तुम्हारे शब्द
नि:शब्द।
सुबह की उजली
नर्म धूप की तरह
मन के आंगन में
उतर आता है
तुम्हारा स्नेह
कुछ यूं कि
जैसे झरते हों
रजनीगंधा के सूखे फूल
आहिस्ता से।"
विरह वेदना और प्रेम की कल्पना को शब्दों में बढ़िया ढाला है आपने मान्या जी
जीतू भाई आने का शुक्रिया .. और कुछ बातें राज ही रहने दीजिये...
सही कहा आपने बासूती जी, आधूनिक कॄष्ण तो ऐसे ही हैं.. इसिलिये तो सांवरे कान्हा कॊ बुलाय है।
shrish ji..धन्यवाद आप्को कविता पसंद आई..template n fonts पर ध्यान दूंगी।
रितेश जी , समीर जी.. शुक्रिया यूं ही हौसला बद्ढाते रहें।
रंजू.. thanx.. तुमसे सहमत हूं..तुम्हारी पंक्तियां सुंदर हैं.।
सागर जी .. आपका बहुत शुक्रिया पर कविता मेरी है.. चित्र मैने नहीं बनाया है।
shuaib JI..शुक्रिया आने का।
प्रियंकर जी .. बहुत धन्य्वाद .. क्या खूब कहा आपने भी।
संजीत जी.. धन्यवाद जो आप ने मेरी रचना पसंद की।
"प्रेम रस की ओढ़ चदरिया तू कहाँ खोजत है सांवरी…मैं उपर नभ,तू नीचे तल बीच में हमारा
हृदयस्थल… कहूं तुझे मैं दिवाना… जो श्याम को रस में बांध, धर दी है अपनी…उपासना"!!!
लिखा सुंदर है…लेकिन जितना मोह गया था…"बावड़ी पिया मैं तेरी" पर; इस लय में मैं आज भी उसपर मंत्र मुग्ध हूँ!!!
शुक्रिया दिव्य.. जो तुमने मेरे सांवरे को देखा मुझ्में.. शायद इस बार प्रेम कि चाशनी कम मीठी रह गई..
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