Saturday, December 15, 2007

सवाल?????? जिंदगी???????जाने क्या????


रूके हैं कुछ खारे से पल....

पलकों की दहलीज़ पर...

देते हैं दस्तक हर पल....

कैसे दूं इज़ाज़त....

ज़मीन नहीं पैरों तले...

साया नहीं आसमां का...

सर पर..

जाने किस ज़मीन पर...

चलते हैं कदम...

दिन कभी ढलता नहीं....

ना कभी होती है सहर...

जाने किस घड़ी की...

सूईयों पर बीतता जाता है वक्त...

मंज़िलों की तलब नहीं....

नामालूम से रास्ते हैं....

चली जाती हूं अकेले ही...

जाने कब खत्म होगा सफ़र...

ना सुनाई देती है कोई सदा...

ना खिलते हैं कभी लब....

क्या करता खुदा भी मेरा...

मैंने कोई दुआ की ही कब...

ना पूछो मेरी उदासी का सबब...

ना सवाल करो मेरी हंसी पर..

बदलते मौसमों को कौन रोक सका है...

किसने की हुकूमत हवा के रूख पर...

हां कुछ अजीब है मेरी दास्तां....

उसने जाने किस स्याही से...

जाने कौन सी इबारत लिखी है...

जिंदगी के पन्नों पर....

जो मैंने ना समझा....

वो तुम क्या समझोगे....

क्यूं उलझते हो...

'मन' की उलझन से....

तुम भी खो ना जाओ कहीं...

इसलिये कहती हूं....

लौट जाओ अपनी दुनिया में...

अपनी राहों पर....
कभी खिली है चांदनी....
अमावस के आसमान पर????



Sunday, November 25, 2007

कुछ इस तरह... जिंदगी मिली मुझसे...


कुछ इस तरह...

जिंदगी मिली मुझसे...

जैसे मिला हो कोई....

अजनबी...अचानक.. यूं ही...

साथ निभाये दो पल का...

और दूर चला जाये....

कुछ इसी तरह....

जिंदगी मिली मुझसे....

कहा कुछ नहीं....उसने...

बस दो निगाहें..उसकी...

करती रही हजार सवाल...

खामोशी मेरी कहती रही...

बस इसी तरह ...

जिंदगी ने बात की मुझसे...

अभी वक्त है....

तलाश खत्म होने में....

पर फिर मिलूंगी...

कभी ना लौटने को...

और फ़िर इस तरह....

जिंदगी बिछड़ गयी मुझसे....

Sunday, October 21, 2007

वादा....


समंदर.... साहिल...

बलखाती मौजें...

भीगे अलसाये पत्थर..

सिंदूरी शाम....

थका-थका सा सूरज..

लौटते पंछी....

गीली पोली सी रेत...

धंसते हैं तेरे-मेरे कदम...

बनाते हैं निशां...

हम हाथ थामे.. चलते हैं..

नंगे पैर... आगे...

कभी.. जब..

पीछे मुड़ के देखती हूं...

रेत के निशां..

मिटा चुकी होती है...

कोई आती-जाती लहर..

नमकीन पानी से...

अधभींगा बदन...

छिल सा जाता है..

जो गुजरती है हवा...

टीसता है दर्द...

और अचानक...

मेरी हथेली पर...

कस उठती है...

तुम्हारी पकड़...





Sunday, October 7, 2007

बस यूं ही..........


ख्वाब आंखों में लिये...

रतजगे करता है कोई...

पूछती हूं...

बंजर हुई नींदों की वजह...

कहता है..

बस यूं ही.........


कभी बे-साख्ता शेर..

कहे जाता है..

कभी ग़जलें लिखता है...

पूछती हूं..

हवाओं पे सज़दे की वजह..

तो.. बस यूं ही...


मेरा दीदार किया करता है...

कभी ख्वाबों में...

कभी तस्वीरों में...

पूछती हूं..

खोयी-खोयी खामोशी..

का सबब...

फ़िर वही.. बस यूं ही...

Sunday, September 30, 2007

मेघा तुम अभी मत बरसना....


अभी गीला है मेरे घर का आंगन...

अभी नम है वो लीपी हुई मिट्टी...

बह जायेगी...

मेघा तुम अभी मत बरसना.....


रात जो छत पर डाली थी...

वो खटिया..वो चटाई..

अभी तक वहीं पड़ी है...

भींग जायेगी....

मेघा तुम अभी मत बरसना....


आंगन में सूखते वो कपड़े...

अभी सूखे नहीं हैं....

कुछ देर लगेगी उन्हें....

मेघा तुम अभी मत बरसना...


अभी चूल्हा भी सुलगाया नहीं मैंने...

अभी जलानी हैं...

कुछ सीली लकड़ियां....

कुछ नम से कोयले.....

मेघा तुम अभी मत बरसना...


उसे काम पर जाना है...

उसकी छतरी जो टूट गयी थी..

अभी ठीक नहीं करवाई है...

मेघा तुम अभी मत बरसना....


कल की बारिश से अभी तक....

गीला है मेरा तन..मेरी आंखें..

मेरे गीले बाल अभी सूखे नहीं हैं....

और गीला सा है मेरा मन...

मेघा अभी तुम मत बरसना...


Wednesday, September 26, 2007

एक उत्तर : मौलिकता


कुछ दिनों पहले मैंने एक कविता अपने ब्लोग पर पोस्ट की थी "वो हंसी सिर्फ़ लिख सकता है" .. और वो पसंद भी की आप लोगों ने.. वो कविता मैंने जिनकी प्रेरणा से या यूं कहूं जिन पर लिखी थी.. उन्होंने.. उस कविता को थोड़ा रूपांतरित कर बड़ा सुंदर जवाब दिया है. मैं उसे यहां उसे पोस्ट कर रही हूं..... उन्होंने इसे शीर्षक दिया है मौलिकता.... उनके शब्दों में..


"प्रिय मान्या,

तुम ने अपनी कविता में मेरा चित्रण करने का अच्छा प्रयास किया…एक ऐसा प्रयास जो कुछ वर्ष पूर्व तक पूर्णत: सत्य था। पर गुज़रते समय के साथ जीवन बहुत एहसास करवा देता है। सच पूछो तो जीवन से अधिक बड़ी और सच्ची कोई पुस्तक नहीं। उसी पुस्तक तो पढ़ते-पढ़ते सैद्धांतिक रूप से जो कुछ सीख पाया, उसे तुम्हारी ही कविता के माध्यम से तुम्हें बता रहा हूँ। व्यावहारिक दृष्टीकोण से देखा जाये तो जो कुछ सीखा, उसे हर बार अपने जीवन में उतारने में तो पूर्णत: सक्षम नहीं हूँ पर हाँ जीवन को एक नयी दिशा अवश्य मिल गयी है…एक ऐसी दिशा जो कहीं पहुंचाती नहीं बल्कि स्वयं के पास वापिस ले आती है……वापिस वहीं जहां से सब कुछ आरंभ हुआ था। ......


मौलिकता

उसने मुझे कई बार
लिखते देखा था...
हाथ में कलम लिये.. सर झुकाये ..…
शब्दों को रूप
देते हुये ...…
और ये भी:
कि मैं केवल खुशी लिखता था।
एक दिन उसने
कहा –
अच्छा लगता है...
तुम इतने खुश हो.. खुशी लिखते हो..
हंसी बांट सकते हो।

मैने अपनी नज़रें उठाई.. कलम रोकी ..
उसकी ओर देखा ,
हलके से मुस्कुराया...
और कहा -
कभी मैं खुशी -हंसी बस लिख सकता था…..
पर देखो ..
अब मैं मुस्कुरा भी सकता हूँ...
कभी मेरे दर्द के साये इतनी गहरे
हो चुके थे… ..
की मुझे हंसने में भी दर्द होने लगा था… ..

पर अब ..
जब भी मैं कलम उठाता हूँ ....
बरबस ही होटों पर मुस्कुराहट पाता हूँ… ...
क्योंकि;
मैं सब कुछ समर्पित कर चुका हूँ;
अपना अहम, लालसा, आशा-निराशा …
एक ऐसा समर्पण;
जो किसी व्यक्ति-विशेष या किसी परमात्मा के प्रति नहीं
अपितु एक निर्वात मन:स्थिति है;
अच्छे-बुरे, खोने-पाने, सुंदर-कुरूप………के परे;
एक ऐसी अवस्था
जो मनुष्य को उसकी प्रारंभिक मूलता
से साक्षात्कार करवाती है।

और यह कहकर मैं चुप हो गया।

मैं देख सकता था:
उसकी गहरी आंखों में भी
इस अकथनीय सत्य की लौ जल चुकी थी
और उसे समझ आ चुका था
मेरे स्थिर मौन का रहस्य,
जो मेरे होंठों पर आभूषित था।
और ये भी;
कि मेरी पनीली आँखों के गहरे साये
विषाद के नहीं अपितु हर्ष के थे।

उसने ठीक कहा
था....
मैं हंसी लिख सकता हूँ...
पर अब उसे ज्ञात था
कि मैं एक ऐसी हँसी जी सकता हूँ
जो सर्वदा मौलिक है।

अचानक हवा का
तेज झोंका आया ...
और मेरे लिखे पन्ने बिखर गये।
मैने उन्हें समेटने की चेष्टा नहीं की
क्यों कि मेरी हंसी उन पन्नों में नहीं,
मेरे सर्वस्व में व्याप्त थी।

Saturday, September 8, 2007

रात भर सोई नहीं मैं....


रात भर सोई नही मैं...

सोचती तुमको रही...

चांदनी खिड़की पे खड़ी थी...

मैं खिड़की पे बैठी रही...

चांद से बातें हुई...

रोशन सितारों को तका...

नींद पास में थी...

पलकें मगर झपकी नहीं...

मुझसे नाराज हैं....

चादर, बिस्तर, तकिये मेरे...

उनको सोना है...मगर..

मैं सोचती तुमको रही...

आंखों में उलझे हैं ख्वाब कितने..

क्या जानोगे तुम....

इक बार मिल जाओ कभी..

देखना फ़िर मानोगे तुम...

रात मुझसे अक्सर....
पूछा करती है. एक सवाल..

जुल्फ़ सहलाती हवा कहती है..

उसे भी है मलाल....
क्यूं सोती नहीं मैं....
तुमने कभी जाना नहीं...

मैं तुम्हारी हूं..

पर तुमने कभी माना नहीं..

Sunday, August 19, 2007

वो हंसी सिर्फ़ लिख सकता है....


मैंने उसे कई बार लिखते देखा है...

हाथ में कलम लिये.. सर झुकाये..

शब्दों को शक्ल देते हुये...

और ये भी की वो सिर्फ़ खुशी लिखता है..

एक दिन मैंने कहा - अच्छा लगता है...

तुम इतने खुश हो.. खुशी लिखते हो..

हंसी बांट सकते हो...

उसने अपनी नज़रें उठाई.. कलम रोकी..

मेरी तरफ़ देखा और हलके से मुस्कुराया...

और कहा- मैं खुशी-हंसी बस लिख सकता हूं...

पर देखो.. मैं हंस नहीं सकता...

मेरे दर्द के साये इतनी गहरे हो चुके हैं...

की मुझे हंसने में भी दर्द होने लगा है..

पर हां.. मैं हंसी लिख लेता हूं....

और मैं बस खुशी ही लिखता हूं...

क्योंकि मैं सबको खुश देखना चाह्ता हूं..

शब्दों के सहारे ही सही.. खुशी देना चाहता हूं..

और ये कहकर वो चुप हो गया...

अब समझ आया था मुझे....

क्यूं वो अकसर चुप ही रहा करता था...

मैंने उसकी साफ़ गहरी आंखों मे देखा....

उनमें खुशी की चमक नहीं थी...

उनमें गहरे साये थे.. वो कुछ पनीली सी थीं..

उसने ठीक कहा था....

वो हंसी सिर्फ़ लिख सकता है...

अचानक हवा का तेज झोंका आया...

और उसके लिखे पन्ने बिखर गये...

वो उन्हें फ़िर से समेटने लगा...

मुझे लगा वो पन्ने नहीं...

अपनी हंसी समेट रहा था...

जो उसके होठों को छोड़...

उन कोरे पन्नों में समा गयी थी....







Monday, August 13, 2007

हे भारत मां!... मैं धन्य-धन्य.....


ये धरती कितनी सुंदर..

इतना स्नेह इसके भीतर..

जैसे मां का आंचल...

हे भारत मां! ...

मैं धन्य-धन्य तेरी बनकर..

तेरी हवा बहती मेरी सांसों में..

तेरे ही धान्य से हुआ पालन..

ये मेरी देह.. सब तेरा ही...

बहता है जो नसों में लहू बनकर..

हे भारत मां!...

मैं धन्य-धन्य तेरी बनकर...

बहुत विवश खुद को पाती मां..

जब देखती हूं.. तुझे पीड़ित...

तेरे अश्रु.. तेरे घाव..तेरी वेदना...

फ़िर भी तु मौन सब सहकर...

ये तेरा दर्द मुझे चीरता भीतर ही भीतर..

पर! कुछ भी तो नहीं कर पाती मैं..

देखती हूं सब सर झुकाये...

सोचती हूं कैसे है तुझमें इतनी शक्ति...

कैसे इतना धैर्य.. इतना सब सहती है...

फ़िर भी बरसता है स्नेह अनवरत..

वही निर्मल आंखें..चेहरे पे वही ममत्व..

तू नहीं..बदली मां!...

हम सब बदल गये... तुझ से जन्म लिया..

फ़िर तुझसे ही छल किया....

कितने घाव दिये तेरे सीने पर...

पीठ में भोंके कितने खंजर...

फ़िर भी तू देती स्नेहाशीष...

वही आंचल की छांव सर पर...

हे भारत मां!...
मैं धन्य-धन्य तेरी बनकर....









Wednesday, August 1, 2007

हां वो एक वेश्या है...... और तुम????


तुम उसे 'वेश्या' कहते हो...



क्योंकि उसने बेची है..अपनी देह..



अलग-अलग लोगों के साथ..



हर बार संबंध बनाये हैं उसने...



उसे हक नहीं समाज में..रहने का..



सम्मानित कहलाने का..



वो अलग है..तुम्हारी बहू-बेटियों से..



क्योंकि वो जैसे जीती है...



वो जीवन नरक है...



वो जो करती है...



वो पाप है...



उसे भूखों मर जाना था...



खुद को मिटा देना था..



पर खुद को बेचना नहीं था..



है.. ना?



पर एक बात कहो..



उन्हें क्या कहोगे तुम....



जिनकी रातें गुजरती हैं..



रोज़ एक नयी देह के साथ..



जिनके घर में पत्नियां भी हैं..



और प्रेमिकायें भी...



जो बाप हैं बेटियों के..



और भाई भी हैं.. बहनों के..



पर फ़िर भी खरीदते हैं देह..



और अलग-अलग रंग तलाशते है..



क्या वो 'बाज़ारू' नहीं?????



सिर्फ़ इसलिये की...



उन्होंने 'देह' बेची नहीं..



खरीदी है.....???!!!!



Saturday, July 21, 2007

"बांझ कौन है ?"




शादी के दो वर्ष बीत गये....


और वो 'मां' नहीं बन पाई...


वंश को एक चिराग ना दे पाई....


आस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदारों में....


कानाफ़ूसी,सुगबुगाहटें होने लगीं..


बांझ, निपूती, अपशकुनी जैसे..


अलंकारों से उसे नवाजा जाने लगा...


केवल ससुराल वालों ने ही नहीं...


अब तो 'सात जन्मों के साथी' ने भी...


उसे 'बांझ' कहना शुरु कर दिया था...


शब्दों की प्रताड़ना अब धीरे-धीरे...


शारीरिक यातना का रूप लेने लगी थी...


'एक बच्चा भी ना जन पाई' ये सवाल....


सबके होठों पर..और नज़रों में हिकारत...


सबकुछ उसकी आत्मा पर छ्प गया था...


पर 'वो' अब भी मौन साधे जी रही थी...


शायद यही मेरी नियति है..मान लिया था..


एक दिन पोते का मुंह देखने की लालसा में..


सास ने अपने बेटे की दूसरी शादी की बात की..


बाप बनने की ख्वाहिश में पति ने भी हामी भर दी..


सात जन्मों का साथ निभाने वाले ने...


तीन सालों में साथ छोड़ दिया था..और..


हुआ किसी और का सात जन्मों के लिये..


'वह' कब तक रहती अकेली निःसहाय...


उसने भी फ़िर से घर बसा लिया...


आज फ़िर दो और वर्ष बीत चुके हैं...


आज 'वह' एक बेटी की गौरवान्वित 'मां' है...


सुहागन, भागन जैसे अलंकार हैं....


और सुना है उसके पहले पति ने....


अपनी दूसरी बीवी को भी...


'बांझ' कहना शुरू कर दिया है....






Sunday, July 15, 2007

ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे.....कब समझोगे तुम...




ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे....कब समझोगे तुम...


समझ गयी ये दुनिया सगरी... पर कब समझोगे तुम....


तुम बिन मैं भयी जोगन...


कुछ रूक के.. कुछ थम के...


हर पल बरसे... मेरे नयन....


सब कहने लगे मुझे... दीवानी...


पर जाने कब.... कुछ कहोगे तुम....


ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे.... कब समझोगे तुम....




हर पल निरखूं... मैं बाट तिहारी.....


इस गली में.... उस डगर पर.....


हर जगह ढूंढू.... मैं तेरे कदम....


पर नहीं मिली कहीं... कोई तेरी निशानी....


जाने कब मिलोगे.... मुझसे तुम.....


ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे.... कब समझोगे तुम.....




गीत गाये कई तेरी प्रीत के....


अब निकले हैं सुर.. बस तेरी विरह के...


कब से पुकारे तुझे... इन सांसों की सरगम...


रीत गयी मेरी उमर... करके तोहे सुमिरन....


पर जाने कब.. सुनोगे मेरी तुम....


ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे.... कब समझोगे तुम......

Saturday, July 7, 2007

तुम ठूंठ नहीं हो....


मत कहो स्वयं को ठूंठ तुम...

क्योंकि मैं जानती हूं....

तुम ठूंठ नहीं हो....

तुम भी एक छायादार....

घने पेड़ हो....

बस वक्त की कड़ी धूप...

और गरम हवाओं के थपेड़ों ने...

सुखा दिया तुम्हारी नमी को....

और तुमने अपने पत्ते गिरा दिये...

और बन गये तुम छायाविहीन...

रूकता नहीं अब कोई राही भी यहां...

रह गये ये तना... और टहनीयां...

पर देखो फ़िर मौसम बदला है....

हवा में नमी है.. ठंडक है...

बादल छाये हैं... आसमां पर...

और बारिश होने लगी है...

इस नमी को सोख लो...

अपनी जड़ों में....

बहने दो इसे अपने भीतर....

देखना तुम फ़िर से खिल उठोगे...

नयी कोंपलें.... नये पत्ते... नये फ़ूल...

देखना राही फ़िर से रूकेंगे....

और ये तना.... टहनीयां....

बनेगी साक्षी तुम्हारे बीते कल की...

कि तुम ठूंठ नहीं थे.....

Saturday, June 30, 2007

तुम्हारा आईना हूं मैं.....


तुम्हारा आईना हूं मैं...

मैं तुम्हें दिखाता हूं...

तुम्हारी असल पह्चान...

तुम्हारी शख्सियत....

केवल तुम्हारा चेहरा ही नहीं..

देख सकता हूं मैं...

तुम्हारी आंखों... और....

तुम्हारे दिल में छुपा सच...

पर तुम्हारी नज़रें....

कभी अपनी आंखों में...

देखती ही नहीं....

और ना अपने दिल की..

तरफ़ देखते हो तुम....


हर सुबह तुम मुझमें...

निहारते हो खुद को....

और देख कर मुझ को..

मुस्कुराते हो तुम....

और खुश होकर...

निकलते हो घर से...

अपने चेहरे पर....

कई चेहरे लगाये......

शाम को लौटते हो...

चेहरे उतारते हो...

और फ़िर एक बार...

देखते हो मुझे....

पर झुकी नज़रों से...

और हट जाते हो...

असल चेहरा...

तुम्हें पसंद नहीं आता..


सच कहता हूं...

जिस दिन....

तुम्हारी नज़रों ने....

मेरी आंखों में...

देख लिया...

उस दिन से मुझे...

देखना छोड़ दोगे...

और कहीं भूले से...

जो उतरे मेरे दिल में...

सच कहता हूं....

मुझे तोड़ ही दोगे....

Saturday, June 23, 2007

तुम मेरा नाम रख देना...मैं बस तुम्हारे लिये रहूंगी...


यूं अकेले तन्हा... क्यूं हो..

किसे ढूंढते हो आस-पास...

मैं बन के हमराह..

हर पल संग चलूंगी..

तुम मेरा नाम 'साथी' रख देना..

बस तुम्हारे लिये तो मैं हूं...

तुम्हारे लिये ही रहूंगी...


तुम्हारा उलझा-उलझा सा दिल...

रोज़ करता है कितने सवाल...

आज मैं दूंगी साथ...

हर सवाल का जवाब बनूंगी..

तुम मेरा नाम 'तमन्ना' रख देना..

बस तुम्हारे लिये तो मैं हूं..

तुम्हारे लिये ही रहूंगी...


ये सूनी-सूनी.. खाली आंखें तेरी...

जाने कहां खोया इनका विश्वास...

अब मैं जगाउंगी आस....

मैं इनमें बन के दीप जलूंगी..

तुम मेरा नाम 'रोशनी' रख देना..

बस तुम्हारे लिये तो मैं हूं...

तुम्हारे लिये ही रहूंगी...


क्यूं बुझा-बुझा सा मन तुम्हारा...

नहीं जगता इसमें कोई अरमान....

मैं तुम्हारे सूखे होठों पर...

बन के मुस्कान खिलूंगी...

तुम मेरा नाम 'खुशी' रख देना...

बस तुम्हारे लिये तो मैं हूं...

तुम्हारे लिये ही रहूंगी....


जाने कबसे हो निःशब्द....

हर पल बोझल कटता ही नहीं...

तुम्हारे इस रूके जीवन में...

मैं दिल बन कर धड़कूंगी...

तुम मेरा नाम 'जिंदगी' रख देना...

बस तुम्हारे लिये तो मैं हूं..

तुम्हारे लिये ही रहूंगी....


"आने दो मुझे जिंदगी मे...होने दो शामिल धड़कन में...

चलो कुछ दूर मेरे साथ.. थाम के मेरा हाथ...

देखना मैं हर बेनूर पल में... 'रंग ओ नूर' भर दूंगी.."


Sunday, June 17, 2007

जिंदगी कुछ तो बता तेरा सच क्या है...


हंसते-मुस्कुराते चेहरों की खुशी में...

अचानक आंखों से पानी छलक आना..

बंद लबों में दर्द की लकीर का खिंच जाना...

कोमल चेहरे का अचानक सख्त हो जाना....

सपनीली आंखों में लहू का उतर आना...

इन बदलते मौसमों का मतलब क्या है..

जिंदगी कुछ तो बता तेरा सच क्या है...


थामे हुये हथेली से झटक कर हाथ छुड़ा लेना..

खुले हाथों की मुट्ठीयां भिंच जाना...

मिलते दिलों के सफ़र में अचानक पलट कर..

सीने में धोखे का खंजर चुभो देना....

इन बेगाने-बिखरते रिश्तों का मतलब क्या है...

जिंदगी कुछ तो बता तेरा सच क्या है...


पहले रोज़ बन के हमराह, हमसफ़र सा मिलना..

फ़िर एक दिन बनकर गैर नजर घुमा लेना....

रोज एक नयी राहगुजर से गुजरना .....

फ़िर भी मंजिल का ना मिलना...

इन अनजानी राहों का मतलब क्या है..

जिंदगी कुछ तो बता तेरा सच क्या है...


दिन भर कामों में उलझे रहना....

तरक्की के दौड़ में भाग-भाग कर थक जाना..

फ़िर भी आंखों में रातों को नींद ना आना..

मन में सुकून का ना होना....

इस बेचैनी का मतलब क्या है...

जिंदगी कुछ तो बता तेरा सच क्या है...


रोज़ एक नयी तलाश में घर से निकलना..

भीड़ में खुद को ढूंढने की कोशिश करना..

फ़िर हताश हो घर को लौट पड़ना....

अपने ही घर में मुसाफ़िरों सा रहना....

इन तन्हा चारदीवारीयों का मतलब क्या है..

जिंदगी कुछ तो बता तेरा सच क्या है.....


"जिंदगी कुछ तो बता ये तुझे क्या हो गया.."


Saturday, June 9, 2007

वो पागल औरत.....




सड़क पर चल रही..


वो पागल औरत...


दुर्भाग्य से जवान थी...


तन पर कपड़े...


कुछ कम थे उसके..


पर शर्म और समाज से...


वो अनजान थी...




अलग-अलग नज़रें ....


उसे कई भावों से..


देख रही थी....


कुछ को हुई वितृष्णा..


और उन्होनें...


घृणा से थूक दिया..


कुछ को शर्म आई..


और नज़रों को..


झुका लिया...


कुछ को दया आई..


पर किया कुछ नहीं..


उफ़! बेचारी... कहा..


और चेहरा घुमा लिया...


पर.....


कुछ आंखें अब भी....


उसी को घूर रही थी..


उसकी मलिन...


धूल-धूसरित देह में...


जाने क्या ढूंढ रही थी...






हा! ये कैसी कुण्ठित मानसिकता....


ये कैसी मानवता???...


एक दीन-हीन.. निर्बल..


असहाय... संग्या-हीन...


मानवी भी तुम्हें...


नज़र आती है...


महज एक देह..


बस एक भोग्या???!!!....




"कह्ते हो तुम उसे पागल.. उसे होश नहीं..


पर तुम चेतनावान मानव...


क्या किया तुमने....


किसे कहूं .. मैं पागल...


सोचती हूं.. किसे होश नहीं??!!"


Sunday, June 3, 2007

तुम मेरे मन के गांव चले आना...


यूं तो दिल बन चुका है...

शहर पत्थरों का....

पर एक कच्ची नम मिट्टी की..

पगडंडी अब भी जाती है....

मन के भोले-मासूम गांव को....

तुम उसी गीली पगडंडी पर..

कदम रख चले आना..मुझ तक..

और छोड़ते जाना...निशान..

अपने कदमों के...

मैं वहीं तुम्हारी राह तकूंगी...

तुमसे मिल...तुम्हारे संग चलूंगी...

तुम बस उसी राह चले आना..


एक कच्चा पुल भी है...

मेरे मन के गांव में...

तुम उस पुल पर...

बन के बादल बरस पड़ना...

और छोड़ जाना बारिश...

से भीगी मिट्टी की सोंधी महक..

मैं भी संग तुम्हारे भींग लूंगी..

तुम बस उसी राह चले आना...


एक छोटी बगिया भी है..

मेरे मन के गांव में..

उस बगिया में...

तुम पूरवा का झोंका बन आना...

बिखेर जाना फ़ूलों की महक....

मैं हवा के संग तुम्हें छू लूंगी....

तुम बस उसी राह चले आना...


"आओगे ना.. मेरे मन के गांव..

कच्ची सड़क पर पैर धरे...

मिलने मुझसे मेरे परदेसी सजन..

मैं तुम्हें उसी पार मिलूंगी..

तुम बस उसी राह चले आना.."

Friday, May 25, 2007

एक नदी है वो.....


एक नदी है वो...
बहती अविरल..
ढूंढती अपनी दिशायें खुद...
चुन के अपनी राह..बह्ती चंचल..
सुनो इसकी कल-कल...
कितनी मृदु, निर्मल, निश्छल..
देखो इसके सौंदर्य को..
जाने कितनी शंख-सीपियां..
जाने कैसे चिकने पत्थर..
चमकीली महीन नर्म रेत..
सब कुछ कितना सुंदर..
बह्ती जाती है..आतुर..
मिलने सागर को..व्याकुल...
सागर से मिल सागर सी..
हो जायेगी विस्तृत...
देखो कैसी बहती अल्ह्ड़..
शीतल जल.. कल-कल..

Sunday, May 20, 2007

सांवरे!.. कहां हो तुम..


बढता जाता है तन्हाई का एह्सास..

नहीं कोई हमराह मेरे साथ...

बस एक तेरी दिल को आस..

सांवरे!.. कहां हो तुम...


छुटता जाता है..रिश्तों का साथ..

नहीं बढाता कोई..अपना हाथ...

बस एक तेरी नज़रों को प्यास..

सांवरे!... कहां हो तुम.....


दिखाई देती है .. हर खुशी भी उदास..

रूकी-रूकी सी आती है हर सांस..

बस एक तेरी धड़कनों को तलाश..

मेरे श्याम-सांवरे!.. कहां हो तुम..

Monday, May 14, 2007

मैं... एक नाकाम कोशिश...


मेरा मन...

एक सीला.. अंधेरा कमरा...

जिसमें सन्नाटा.. पसरा हो..


मेरे सपने...

उस अंधेरे में..एक उदास..

रोशनी की लकीर से...


मेरी धड़कन...

कमरे में गुजरती... हवा की..

सरसराहट सी... सहमी हुई..


मेरे अह्सास...

उस अंधियारे में..

खो चुके उजालों से...


और तुम...

अचानक उतर आई.. सपनीले..

रंगों की धूप सरीखे...


और मैं....

उस धूप को...मुट्ठी में..

बंद करने की..

एक नाकाम कोशिश...

Monday, May 7, 2007

बहाव जिंदगी का......




कितने अजीब मोड़ों से गुजरी है जिंदगी...


जाने कौन है हमराह मेरा..


जाने कौन मेरा साथी...


जब भी जो भी मिला....


कुछ अपना सा ही लगा....


दिल के करीब कोई सपना सा लगा...


हर बार मुझे कोई.....


एक नया नाम देता गया..


एक नये बंधन में.....


मेरा वजूद डुबोता गया...


राह में खड़े उस पेड़ की तरह....


कुछ देर यहां ठहरना सभी का....


मेरी परछाईयों में....


सबको सुकून ही मिला....


ढलते दिन के साथ...


जो ढला मेरा साया...


मुझे छोड़ कर....


वो आगे बढता गया.....


और बढते अंधेरे में....


एक नयी आग जला गया....


जली आग ने राह को...


और भी रोशन कर दिया....


खुद को लुटा मेरा मन...


तन्हाई की तपिश सहता रहा....






पर अब चाह्ती हूं बस....


अब ये आग बुझ जाये.....


कोई तो बादल बन....


मुझ पर भी बरस जाये.....


इतनी हो बारिश....


भीग जाये मेरा तन-मन...


एक हो जाये जल-थल...


एक से ही ये धरती-गगन...


मैं भी डूब जाउं....


लेके किसी को संग....


बस अब ये जिंदगी....


किसी मोड़ पर ठहर जाये.....

Friday, April 13, 2007

शायद तुमने घर बदल लिया है....




पहले जब भी मैं तुम्हें...अपने घर के आंगने से...


पुकारा करती थी.. तुम सुन लिया करते थे...


कई बार छ्त की मुंडेर से...


या अपने कमरे की खिड़की से....


मेरे आंगन में झांका करते थे तुम....


और मैं आंगने में लगे नीम से....


बंधे झूले पर बैठी तुम्हें..


चुप के से देखती थी...


कई बार तुम चोरी -चोरी भी...


देखा करते थे मुझे...


जब मैं एक पैर पर खेल रही होती थी...


या बातें कर रही होती गुड़ियों संग..


या नाच रही होती दादी के गीत पर...


तुम्हें झांकता देख मैं शरमा कर..


अंदर दौड़ जाया करती थी..


तुम्हारा वो छत पर टहलने आना...


और मैं बाल सुखा रही होती थी...


और कभी कोई किताब हाथ में लिये..


यूं ही घूमना और मुझे देखना..


कई बार हम अपनी-अपनी छ्तों से..


शाम के सूरज को साथ डूबता हुआ देखते....




पर अब तुम कहीं नहीं दिखते...


ना छ्त पर..ना खिड़की से झांकते...


मेरी कोई आवाज़ तुम तक नहीं पहुंचती...


कई बार मैं आहट होते ही दौड़ कर आती हूं...


की शायद तुम आये हो...
पर तुम कहीं नहीं होते..


फिर एक दिन मैने तुम्हें चिट्ठी लिखी...


तुम्हारी कोई खबर तो मिले...


पर आज वो भी लौट आई है..


लिखा है पता गलत था...


शायद तुमने घर बदल लिया है...

Wednesday, March 28, 2007

दास्तां हुस्न औ इश्क की...


खता हया-ए-हुस्न से हुयी ऐसी भी क्या..

जो वफ़ा-ए-इश्क इस कदर रूठ गया...


हुस्न तो सदा ही बिखरा है टूट कर...

पनाह-ए-इश्क की बाहों मे, पर आज..

ज़रा सी दिल्लगी की ऐसी मिली सज़ा..

दामन-ए-हुस्न से इश्क कहीं छूट गया..


इश्क की गर्मी से तो हुस्न हमेशा पिघलता रहा..

रात दिन तमन्ना-ए-इश्क में जलता रहा...

इश्क जब भी मिला बस पल दो पल के लिये...

और हर बार रूह-ए-हुस्न को और तन्हा कर गया..


जलवा-ए-हुस्न को क्या बयां करे कोई...

काबिले तारीफ़ तो अदा-ए-इश्क है आजकल..

चाहा हुस्न को इश्क ने तड़प के इस कदर..

कि अपना दर्द वो हुस्न-ए-दिल में छोड़ गया...


कैसे शिकवा भी करे सदा-ए-हुस्न...

खामोश इश्क से उसकी बेरुखी पर...

यही तो लिहाज़ है दायरा-ए-मोह्ब्बत का..

वो तो बस दायरे का एक और वर्क मोड़ गया..


खाम्ख्वाह हुस्न को बेवफ़ाई का इल्ज़ाम ना दीजिये..

हुस्न तो आज भी जगा है इंतज़ार-ए-इश्क में..

वरना कब की बंद कर ली होती उसने पलकें अपनी..

गर खुली आंखों में वो उम्मीद-ए-इश्क ना छोड़ गया होता..




Saturday, March 24, 2007

ऐ मेरे दोस्त... कैसे करूं तेरा शुक्रिया...


बिन मांगी दुआ से तुम मिले मुझे मेरे दोस्त...
कैसे करूं मैं तेरी दोस्ती का हक अदा...
ऐ मेरे दोस्त!.. मैं कैसे करूं तेरा शुक्रिया...

कड़कती धूप में जल रही मेरी ज़िंदगी...
तुम लेके आये प्यार का घना साया..
मुझे जो रखा पलकों की छांव तले...
ऐ मेरे दोस्त!... मैं कैसे करूं तेरा शुक्रिया...

अंधेरी, सीली फ़िज़ां में घुटता दम मेरा...
सहमी सांसें, खोई थी रोशनी कहीं...
तुम बन के आये खुशी का उजियारा..
खुद को जला के किया जो मुझे रोशन..
ऐ मेरे दोस्त!.. मैं कैसे करूं तेरा शुक्रिया..

डरी, सहमी मैं अकेली.. बिल्कुल तन्हा....
साथी भी सारे बन गये अजनबी...
ऐसे में तुमने साया बन साथ निभाया...
भूल के अपनी तन्हाई जो बने मेरे साथी...
ऐ मेरे दोस्त!.. मैं कैसे करूं तेरा शुक्रिया...


मेरे सूने मन पर जब अंधेरा गहराया...
खो दी थी मैंने मंज़िल की राह भी...
ऐसे में तुमने हाथ पकड़ चलना सिखाया..
खुद की राह छोड़ जो चले मेरे संग....
ऐ मेरे दोस्त!... मैं कैसे करूं तेरा शुक्रिया...


मेरा खाली दामन तुम्हें कुछ भी ना दे पाया..
पर मेरी सारी मुश्किलें तुमने थाम लीं...
और तुम हर पल बने रहे मेरा सरमाया...
अपने आंसू भूल जो मेरी खुशी में हंस दिये....
ऐ मेरे दोस्त!... मैं कैसे करूं तेरा शुक्रिया...

Tuesday, March 20, 2007

रात ने जो पाया संग तेरा.......




स्याह, तन्हा..रात ने जो पाया संग तेरा..


आज सुबह है खिली-खिली सी...




रात भर पगली हवायें तुझसे लिपटी रहीं..


तेरे जिस्म का संदल छूती रहीं..


सर्द हवाओं को जो तुमने सहला दिया...


तभी आज पुरवा भी है महकी-महकी सी...




आसमां पे छिटकी धवल,चंचल चांदनी...


तुम्हें अपने आगोश में भरती रही..


ज्योत्सना ने जो किया आंलिगन तेरा..


तो भोर की लाली भी है गरमाई सी..




बावरी काली बदरिया तुम पर झुकी रही..


तुम छेड़ते रहे घनघोर घटाओं को...


घटाओं ने जो छुपाया वदन तुम्हारा...


सुबह ने ली है अलसाई,अंगड़ाई सी...




ये फ़िज़ायें तुमसे अठखेलियां करती रहीं...


कभी बिखरती, कभी तुममें सिमटती रही...


शोख कलियों को जो चूम लिया तुमने...


आज फूलों पे शबनम भी है शरमाई सी...




झील की लहरें करवटें बदलती रहीं..


ठंडी रेत तेरे पैरों तले पिघलती रही..


तुमने जो वादियों का दामन ओढा..


सुबह आसमां ने करवट बदली अनमनी सी...




रात ने जो पाया संग तेरा...


आज सुबह है खिली-खिली सी...