सड़क पर चल रही..
वो पागल औरत...
दुर्भाग्य से जवान थी...
तन पर कपड़े...
कुछ कम थे उसके..
पर शर्म और समाज से...
वो अनजान थी...
अलग-अलग नज़रें ....
उसे कई भावों से..
देख रही थी....
कुछ को हुई वितृष्णा..
और उन्होनें...
घृणा से थूक दिया..
कुछ को शर्म आई..
और नज़रों को..
झुका लिया...
कुछ को दया आई..
पर किया कुछ नहीं..
उफ़! बेचारी... कहा..
और चेहरा घुमा लिया...
पर.....
कुछ आंखें अब भी....
उसी को घूर रही थी..
उसकी मलिन...
धूल-धूसरित देह में...
जाने क्या ढूंढ रही थी...
हा! ये कैसी कुण्ठित मानसिकता....
ये कैसी मानवता???...
एक दीन-हीन.. निर्बल..
असहाय... संग्या-हीन...
मानवी भी तुम्हें...
नज़र आती है...
महज एक देह..
बस एक भोग्या???!!!....
"कह्ते हो तुम उसे पागल.. उसे होश नहीं..
पर तुम चेतनावान मानव...
क्या किया तुमने....
किसे कहूं .. मैं पागल...
सोचती हूं.. किसे होश नहीं??!!"
18 comments:
मानवीय गिरावट और भावनाओं को सुंदरता से शब्दों में पिरोया है आपने .....समाज का घिनोना सत्य है ..
मान्या जी,
कविता पसन्द आई.
( टिप्पणी के रूप मेँ एक पूरी कविता अभी अभी अपने चिट्ठे पर डाल रहा हूं )
अरविन्द चतुर्वेदी
भारतीयम्
I am spellbound.
The compassion, sensitivity and keen observation of the author is truly reflected.
It comples one to think, "What would I have done?" And then it asks you to deal with your own honest answers from within.
My congratulations for this work. Your work is getting broader...more diversified. Keep it up.
किसे होश नहीं,
यह एक ऐसा प्रश्न है,
जिसके उत्तर में,
कौन खामोश नहीं।
आपकी कविता कहीं छू कर गई है।
बहुत सही मान्या जी।
प्रिय मान्या,
ऐसी विवशता...मेँ भी नारी को सिर्फ "भोग्या" नी सँदिग्धता से देखतीँ नज़र
कविता के ज़रिये से प्रकट कर , एक बहुत बडा प्रश्न चिन्ह छोड गई आपकी नज़र -
काश!ऐसे दुख भरे द्रश्य ना होते हमारे समाज मेँ ...तो कितना अच्छा होता !
पर, वास्तव यही है...उस बात से ग्लानि है ...
स -स्नेह,
लावण्या
"कह्ते हो तुम उसे पागल.. उसे होश नहीं..
पर तुम चेतनावान मानव...
क्या किया तुमने....
किसे कहूं .. मैं पागल...
सोचती हूं.. किसे होश नहीं??!!"
मान्या जी, आपके प्रश्न गंभीर हैं और जिस प्रकार एवं जिन शब्दों में आपने इसे प्रस्तुत किया है वह रचना को चिर-जीवंत बना देता है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
वाह! बहुत तीखी चोट की है आपने अपनी पंक्तियों में समाज की इस तरह की मानसिकता पर ।
बहुत खूब मान्या जी! मान गये..
कवि कुलवंत
मान्या,
काफी दिनों बाद ब्लाग पर आने का समय मिला है…देखा की तुमने भी काफी कम लिखा है…इस रचना पर ज्यादा कुछ नहीं कहना है मुझे…तुम अधिक समझदार हो…पर यह जरूर की अब हवा बदल रही है और इतनी तेज की पता ही नहीं चलता है की कौन भोग्या है और कौन भोग रहा है…कविता बहुत अच्छी है पर i didn't like the theme.
मान्या जी, यदि पुरि मानवता से सवाल करें तो मेरी नज़र में पुरुष के लिये इस सवाल का जवाब देना एक कठिन बात हो जायेगि लेकिन परिस्थितिवस इस सवाल के जवाब कई तरह के भी हो सकते हैं, जवाब चाहे जो भी हो ये अहम बात नही है, वरन ईस सवाल के पिछे छिपे कारण ही मुख्य बात है
मनुष्य ने मानसिक उन्नति तो बहुत कर लि है लेकिन अध्यात्मिक विकास मे वो बहुत पिछे रह गया है
ये मेरे निज़ी विचार हैं और निश्चित ही यह बहुत व्यापक प्रशन है जवाब तो कठीन है पर हां मान्या जी कविता सच में अच्छी है
maanv ki amaanviyata ka nagn chitran kiyaa hai.
how grreatfully u describe the status of poor woman, but i think he is not mad, due to sitituation and circumstances u can mad, i think people who see them is absalutaly mantel.
keep it up and going on.......
शुक्रिया रीतेश जी, आने का और सराहने का..इसी से मनोबल मिलता है और लिखने का..
अरविन्द जी .. आपको मेरे विचार पसंद आये धन्य्वाद.. आपकी कविता पर तो मैं अपने भाव कह ही चुकी हूं.. यूं ही हौसला बढाते रहियेगा..
Radical Esseence.. thanx for ur great kind words.. n appreciating n encouraging me...
अभिनव जी शुक्रिया.. सही कहते हैं आप..
संजीत जी बेहद शुक्रिया...
लावण्या दीदी.. आप मेरे ब्लोग पर आयीं.. और इतना सराहा.. सच्मुच बहूत खुशी हुई.. यूं ही स्नेह और आशीर्वाद देती रहें..
राजीव जी.. बहुत शुक्रिया आपका.. बहुत तारीफ़ कर दी आपने...
मनीष जी .. बस एक कोशिश की है जो देखा उसे कहने की.. उमीद है लोग सम्झेंगे..
कुल्वंत जी.. शुक्रिया.. कम में ज्यादा कह गये आप..
दिव्याभ मित्र.. मैंने ये कविता.. एक सत्य अनुभव पर लिखी है.. और भोग्या शब्द उसी एक वर्ग की मानसिकता के लिये है.. ना की समूचे पुरुष वर्ग पर कटाक्ष किया है.. कुछ लोग आज भी नारी को देह ही मानते हैं.. ये तुमने भी मह्सूस किया होगा ना..कभी ना कभी
रंजन जी.. सब्से पहले शुक्रिया मेरा उत्साह बढाते रहने का..और मेरा प्रश्न पूरे समाज से है.. या यूं कहूं .. व्यक्ति का पाने आप से है.. आप सही कहते हैं.. आप सही कहते हैं>> हमने.. मान्सिक उन्न्ती नहीं की..
विकास जी .. बहुत धन्य्वाद आप्के सुंदर शब्दों का..
Stranger friend.. thnx for coming here.. ur appreciation n thghts..
EK SACH KO UJAGAR KARTI RACHANA LAGI AAPKI MANYA ....DIL KO CHU GAYI KAI LINES ...LIKHTI RAHE ...
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