यूं तो दिल बन चुका है...
शहर पत्थरों का....
पर एक कच्ची नम मिट्टी की..
पगडंडी अब भी जाती है....
मन के भोले-मासूम गांव को....
तुम उसी गीली पगडंडी पर..
कदम रख चले आना..मुझ तक..
और छोड़ते जाना...निशान..
अपने कदमों के...
मैं वहीं तुम्हारी राह तकूंगी...
तुमसे मिल...तुम्हारे संग चलूंगी...
तुम बस उसी राह चले आना..
एक कच्चा पुल भी है...
मेरे मन के गांव में...
तुम उस पुल पर...
बन के बादल बरस पड़ना...
और छोड़ जाना बारिश...
से भीगी मिट्टी की सोंधी महक..
मैं भी संग तुम्हारे भींग लूंगी..
तुम बस उसी राह चले आना...
एक छोटी बगिया भी है..
मेरे मन के गांव में..
उस बगिया में...
तुम पूरवा का झोंका बन आना...
बिखेर जाना फ़ूलों की महक....
मैं हवा के संग तुम्हें छू लूंगी....
तुम बस उसी राह चले आना...
"आओगे ना.. मेरे मन के गांव..
कच्ची सड़क पर पैर धरे...
मिलने मुझसे मेरे परदेसी सजन..
मैं तुम्हें उसी पार मिलूंगी..
तुम बस उसी राह चले आना.."
20 comments:
मान्या जी,बहुत बढिया रचना है।प्रेम का संदेश देती बहुत भावपूर्ण रचना है। बधाई\
"आओगे ना.. मेरे मन के गांव..
कच्ची सड़क पर पैर धरे...
मिलने मुझसे मेरे परदेसी सजन..
मैं तुम्हें उसी पार मिलूंगी..
तुम बस उसी राह चले आना.."
हमेशा की तरह एक अच्छी रचना. बधाई.
ati utttam rachna.
man ko chhoo gayi.
बढ़िया रचना!
आपकी अधिकतर रचनाओं मे या तो विरह दिखता है या फ़िर इंतजार……………
यूं तो दिल बन चुका है...
शहर पत्थरों का....
पर एक कच्ची नम मिट्टी की..
पगडंडी अब भी जाती है....
मन के भोले-मासूम गांव को....
अच्छा लिखा है....पसंद आया...बधाई
Ek bar fir apne bhavo ko sidhe sabdo me prakat kiya hai manyaji
bahut acchi rachana !
इंतजार और विरह से जुड़ी भावनाएं आप सहजता से व्यक्त कर जाती हैं।
थोड़ा ध्यान से ढूँढो......तुम्हारे आसपास ही होगा तुम्हारा साँवरिया....पगडंडी पर साथ ही चले जाना :))
बहुत खूब मान्या!
इतनी सुंदर भावाभिव्यक्ति के लिए..हम कितना ही आगे क्यों न बढ़ जाएं, कितनी ही तरक्की क्यों न कर लें, मन है कि सरलता ही ढ़ूंढ़ता है..बधाई..
कवि कुलवंत सिंह
प्रिय मान्या!
मनीष की तारीफ़ में ही मेरी प्रशंसा भी शामिल है . विरह और प्रतीक्षा आपकी कविताओं का केन्द्रीय भाव है . और इन भावों की अभिव्यक्ति में आपने एक किस्म की महारत हासिल कर ली है .
पर विशेषज्ञता के अपने खतरे हैं . आशा है उन पर भी तुम्हारा ध्यान होगा .
बहुत सुंदर लिखा है मान्या [:)]
मैं तुम्हें उसी पार मिलूंगी..
तुम बस उसी राह चले आना.."
पथरीला मन जब:
प्रेम के अम्रत में घुलने लगेगा,
गर्म मोम की तरह जब:
कतरा-कतरा पिघलने लगेगा,
देखना:
तुम्हारा प्रियतम,
कच्चे धागे से बंधा
खिंचा आयेगा चला
और
संगिनी तुम्हें बना
ले जायेगा विरह के पार;
जहाँ प्रीत का मधुर आलिंगन
बनेगा तुम्हारा चिर-श्रंगार।
आशा है मित्र:
मेरे दिल की सद-भावना
और थोड़ा सा प्रयास तुम्हारा
मिल कर ले आयेंगे
तुम तक तुम्हारा साँवरा
क्रपया अनुग्रहित करो:
स्वीकर कर मेरी यह शुभ-कामना।
its too gud dear...
siddhe dil ko chu jati hai...
Really this one is good poem, i am appricate to u for such type of poem. I read ur poem regurally, but unable to write in hindi.
"आओगे ना.. मेरे मन के गांव..
कच्ची सड़क पर पैर धरे...
मिलने मुझसे मेरे परदेसी सजन..
मैं तुम्हें उसी पार मिलूंगी..
तुम बस उसी राह चले आना.."
keep it up.
परमजीत जी.. बहुत शुक्रिया.. जो इतनी सराहना की..
समीर जी.. धन्य्वाद यूं ही हौसला बढाते रहियेगा..
विकास जी.. तहेदिल से शुक्रिया..
संजीत जी.. धन्यवाद .. आप सही कहते हैं..
रीतेश जी.. बेहद शुक्रिया..आप्के सुंदर शब्दों का..
रंजन जी.. आपकी तारीफ़ के लिये बेहद शुक्र्गुजार हूं..
मनीष जी.. धन्य्वाद.. आने का..और समझने का..
बेजी जी.. आपके प्यारे शब्दों का बहुत शुक्रिया.. आपकी शुभकामनायें मिलती रही तो जल्द मिल जायेगा सांवरिया..
कुलवंत जी.. बिल्कुल सही कहा आपने. ये मन हमेशा सहज्ता और सरलता का कायल है..आपकी मेरी कविता पसंद आयी शुक्र्गुजार हूं..
प्रियंकर जी.. आप्ने जो प्रंशसा भरे श्ब्द कहे . आभारी हूं.. साथ ही आपकी सलाह का भी ध्यान रखूंगी..
रंजू जी.. बेहद शुक्रिया.. जो इतना सराहा...
शेखर जी आपकी शुभ्कामना तहे दिल से स्वीकार करती हूं.. आप्की ये काव्य्मयी प्रंशसा मुझे हमेशा गदगद कर देती है.. समझ में नहीं आता आपका शुक्रिया कैसे करूं..
मयूरी .. तुम आयी.. मेरी रचनायें पढी.. thnx dear..
Stranger friend.. i do not know who r u.. but really thankful for ur kind words n effort.. u can always write in english... its fine with me..... thnx again n keep coming..
इस कविता में जरुर कुछ बात है जो कहना चाहती है अपने हृदय की सहज भावना को… गाँव का प्रतीक इतना सुंदर लगा कि क्या कहूं…पता नहीं लोगों ने समझा की नहीं पर गाँव तो सरलता- स्वच्छंदता-कोमता का प्रतीक है और सत्य प्रेम का अहसास इसी रास्ते से होकर जाती है…।
बहुत खुब बधाई!!!
मित्र दिव्याभ.. इतने दिनों बाद तुम्हें देख्कर बहुत खुशी हुई... हां, इधर कम लिख रही हूं .. कुछ व्यस्त हूं.. समय नहीं मिलता.. खैर..
जो तुमने समझा वही इस कविता में मैने कहने का प्र्यास किया है.. कोमल मन .. में प्रियतम से मिलने की आस है इस्में.. और नायिका सत्य प्रेम के कच्चे रास्ते पर प्रिय को बुला रही है.. प्रेम. आस और विश्वास यही बसता है मन के गांव में.. समझने का शुक्रिया..
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