शादी के दो वर्ष बीत गये....
और वो 'मां' नहीं बन पाई...
वंश को एक चिराग ना दे पाई....
आस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदारों में....
कानाफ़ूसी,सुगबुगाहटें होने लगीं..
बांझ, निपूती, अपशकुनी जैसे..
अलंकारों से उसे नवाजा जाने लगा...
केवल ससुराल वालों ने ही नहीं...
अब तो 'सात जन्मों के साथी' ने भी...
उसे 'बांझ' कहना शुरु कर दिया था...
शब्दों की प्रताड़ना अब धीरे-धीरे...
शारीरिक यातना का रूप लेने लगी थी...
'एक बच्चा भी ना जन पाई' ये सवाल....
सबके होठों पर..और नज़रों में हिकारत...
सबकुछ उसकी आत्मा पर छ्प गया था...
पर 'वो' अब भी मौन साधे जी रही थी...
शायद यही मेरी नियति है..मान लिया था..
एक दिन पोते का मुंह देखने की लालसा में..
सास ने अपने बेटे की दूसरी शादी की बात की..
बाप बनने की ख्वाहिश में पति ने भी हामी भर दी..
सात जन्मों का साथ निभाने वाले ने...
तीन सालों में साथ छोड़ दिया था..और..
हुआ किसी और का सात जन्मों के लिये..
'वह' कब तक रहती अकेली निःसहाय...
उसने भी फ़िर से घर बसा लिया...
आज फ़िर दो और वर्ष बीत चुके हैं...
आज 'वह' एक बेटी की गौरवान्वित 'मां' है...
सुहागन, भागन जैसे अलंकार हैं....
और सुना है उसके पहले पति ने....
अपनी दूसरी बीवी को भी...
'बांझ' कहना शुरू कर दिया है....
18 comments:
मान्या जी, बहुत विचारणीय सवाल उठाया है आप ने अपनी रचना में। कई बार ऐसा भी होता देखा गया है कि संतान ना होने का कारण पति होते हुए भी पत्नी को उस की सजा भुगतनी पड़्ती है।जो निन्दनीय है।लेकिन क्या विवाह का मतलब मात्र संतान पैदा करना मात्र ही है?उनके आपसी प्रेम का कोई मतलब नही?समाज को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
बहुत गहरी रचना...भावनात्मक प्रवाह का कोई सानी नही, बधाई.
manya
excellent expressions to say what is the truth
wow lady you do have guts to write truth
बहुत ही संज़ीदा हक़ीकत से रूबरू करती रचना.
पर नर नारी के रिश्ते संतति का जनना नहीं है.
रामधारी सिंह दिनकर ने महान कृति उर्वशी में कहा है-
दो दीपों की सम्मिलत ज्योति
जब एक शिखा वो जलती है.
तन के अगाध रत्नाकर में,
ये देह डूबने लगती है.
कितनी पावन वह रस समाधि,
जब सेज स्वर्ग बन जाती है.
गोचर शरीर में विभा अगोचर
सुख की झलक दिखाती है.
जहां नारी को संतान उतपत्ति तथा विलास का मात्र साधन माना जाता हो.वहाँ ऐसा ही होगा.किसी ने सच कहा है-
जिस्म की बात नहीं थी
उसके दिल तक जाना था.
लम्बी दूरी तय करने में,
वक्त तो लगता है.
ताउम्र शरीर को झिझोड़ने वाले नर रत्न ये बात भला कैसे समझेंगे.
वैसे छन्द बद्ध रचनायें ही मेरा ध्यान आकर्षित करती हैं पर इस रचना में लगाये मर्दों को तमाचे ने मन मोह लिया.
डा.सुभाषभदौरिया.अहमदाबाद.
बहुत ही मार्मिक रचना,
भावों की सुन्दर और हृदय को झकझोर देने वाली अभिव्यक्ति ।
साधुवाद स्वीकार करें,
एक विकट सत्य 100% खरा…
मुझे आश्चर्य होता है इन विद्वानों की टिप्पणियों को पढ़कर,किस दुनियाँ के लोग हैं। अरे भाई दिनकर को नहीं इतिहास को याद करें कि आज तक क्या हुआ है इस देश में स्त्रियों के साथ… कम-से-कम पत्नियों के साथ तो नयनों से दीपक नहीं जलाया है किसी ने हाँ प्रेमिका के साथ ऐसा होता है किसी कवि ने ठीक ही कहा है…कवि इसकारण कि मैं नाम भुल रहा हूँ…-- "बीबी हमेशा घर में प्रेमिका हमेशा मन में" शाहजहाँ के उपरांत न तो किसी ने ऐसा प्रेम किया न करेगा कोई…।
यथार्थ चित्रण किया है तुमने यह गद्य-काव्य मुझे काफी पसंद आया…।
manya you have indeed done a great job....this poem is hard hitting really
ये हमारे समाज की कुरीतियों मे से एक है की अगर औरत माँ नही बन पाती है तो वो बाँझ कहलाती है जबकि पुरुष को कोई कुछ नही कहता है भले ही हक़ीकत जानते हो।
बहुत सधे हुए शब्दों मे आपने कहा है।
बहुत खूब ! अच्छा लिखा है।
chinta na kijiye,vigyan jaldi hi samasya ka samadhan kar dega,jaldi hi ye banjh,kahne wale log ekdum khamosh ho jayenge......isliye ki unki zaroorat hi nahi padegi.....kahin padha hai ki bina purush ke bhi santan ki utpatti ho sakegi....kritrim bhrun rache jayenge.....aapki rachna ka swgat hai,naya wishay chuna hai iske liye badhai ho.....ab aisa hi rahe to sahi hai....purani chavi se bahar nikalne ki bahut behtar prayas hai......
santosh
maafi chahunga hindi fonts ki anuplabdhta se kuch kaha nahi paya.........
mahfil
और सुना है उसके पहले पति ने....
अपनी दूसरी बीवी को भी...
'बांझ' कहना शुरू कर दिया है....
मान्या जी,
काव्य के लिहाज से कविता जैसी भी हो, विषय और भाव के नजरीये से प्रभाव पैदा करने वाली रचना है. बांझ कौन है, कविता बांझ नहीं है, पढने के बाद ठहराव या मौन उत्पन्न होता है, कुछ समझ में ही नहीं आता और असमर्थ होने का भाव हावी होने लगाता है, वेदना का संवाद प्रकट होने लगता है और कविता अचानक से कई सवालों को जन्म दे देती है, ऐसे में कविता अर्थपूर्ण मालूम होने लगती है. एक बात और है कि आज कल इसी शैली की कविताओं का चलन भी देखने को मिल रहा है, वैसे निश्चित तौर पर आपकी दूसरी कई रचनाओं से कहीं ज्यादा बेहतर है.
शुक्रिया
मान्या जी, आपका यह नूतन प्रयास सराहनीय है। जो बात लोग पुरुश-प्रधान समाज में खुल कर नहीं कहते, उसे आप ने बख़ूबी व्यक्त किया है। जो पहलू आप ने उठाया है, उस की गंभीरता के बारे में तो कोई संदेह नहीं है परंतु जिस प्रकार आप ने उसे शब्दों में चित्रित किया है, वह इस रचना को सशक्त बनाता है। साधरणत:, लेखक/लेखिका, अपनी रचना में निजी टिप्पणी करते हैं पर आप ने, केवल एक सामाजिक कुसंगती की ओर इशारा किया है और पाठक को स्वंय सोचने की स्वाधीनता दी है। आप की यह निष्पक्ष शैली आप के एक ज़िम्मेदार लेखिका होने का प्रमाण देती है। हाँ कविता लिखने के नियमों की बात की जाय तो शायद कुछ सुधार किये जा सकते थे।
बाली साहब की बात से भी सहमती प्रकट करना चाहूंगा। अगर विवाह का प्राथमिक अर्थ वंश बढ़ाने की बजाय, आपसी प्रेम, समर्थन और आदर होता तो शायद नारी के सम्मान की किताबी गाथायें यथार्थ हो पातीं।
शेखर
बहुत गंभीर विषय है कविता का....
ऎसे विषय पर अपनी भावनाओ को विस्तार से कविता में कहना और दूसरों को समझा पाना बड़ा कठिन होता है....यह कार्य आपने बखूभी निभाया है ....बधाई
भावपूर्ण अभिव्यक्ति... मन को झकझोर गई... आख़िर क्यों होता है ऐसा? कब तक चलेगा यह ?
सामाजिक यथार्थ के इस चित्रण द्वारा, प्रभु करे, कि बहुतों की आंखें खुले.
-- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
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बहुत सुन्दर भाव भरी रचना है मान्या जी...
पुरुष प्रधान समाज में नारी का शोषण..वो भी बिना किसी कारण के..हमें ही बदलना है क्योकि हम सब मिल कर ही समाज बनाते हैं...आईये सब मिल कर बिल्ली के गले में घंटी बांधें
आप सभी का बेहद धन्य्वाद जो आप लोगों ने मेरी भावनाओं को सम्झा और मेरे उठाये प्रश्न पर ध्यान दिया,, ये पुरूष प्रधान का एक बड़ा सच है.. संतानोत्पत्ति के लिये दोशी हमेशा स्त्री को ठहराया जाता रहा है.. बिना सच जाने की दोषी वास्तव में है कौन.. ये एक कोशिश है इस रीत को बदलने की.. इस पर सोचने की....शुक्रिया..
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