तुम्हारा आईना हूं मैं...
मैं तुम्हें दिखाता हूं...
तुम्हारी असल पह्चान...
तुम्हारी शख्सियत....
केवल तुम्हारा चेहरा ही नहीं..
देख सकता हूं मैं...
तुम्हारी आंखों... और....
तुम्हारे दिल में छुपा सच...
पर तुम्हारी नज़रें....
कभी अपनी आंखों में...
देखती ही नहीं....
और ना अपने दिल की..
तरफ़ देखते हो तुम....
हर सुबह तुम मुझमें...
निहारते हो खुद को....
और देख कर मुझ को..
मुस्कुराते हो तुम....
और खुश होकर...
निकलते हो घर से...
अपने चेहरे पर....
कई चेहरे लगाये......
शाम को लौटते हो...
चेहरे उतारते हो...
और फ़िर एक बार...
देखते हो मुझे....
पर झुकी नज़रों से...
और हट जाते हो...
असल चेहरा...
तुम्हें पसंद नहीं आता..
सच कहता हूं...
जिस दिन....
तुम्हारी नज़रों ने....
मेरी आंखों में...
देख लिया...
उस दिन से मुझे...
देखना छोड़ दोगे...
और कहीं भूले से...
जो उतरे मेरे दिल में...
सच कहता हूं....
मुझे तोड़ ही दोगे....
9 comments:
अच्छी कविता....
लेकिन सच से कुछ दूर. मुझे लगता है आइने तोडे नहीं जा सकते उन्हें तोडने के लिए जिस जीवन मूल्य की जरूरत है वह फिलवक्त लोगों में सिरे से गायब है.
सुन्दर कविता और गहरी सोच. बधाई.
bahut sahi aur sundar rachana ...padh ke ek ghari soch ka ehsaas hota hai ...
"जिस दिन....
तुम्हारी नज़रों ने....
मेरी आंखों में...
देख लिया...
उस दिन से मुझे...
देखना छोड़ दोगे..."
सुन्दर
और कहीं भूले से...
जो उतरे मेरे दिल में...
सच कहता हूं....
मुझे तोड़ ही दोगे....
मन को छू लिया आपने इन पंक्तियों से। ये अलग बात है कि आज के वक्त में आइने में इतनी गहराई से आत्मावलोकन कितने लोग कर पाते हैं।
आईना तो मात्र सांकेतिक वस्तु है… अगर हम अपने सामने के मित्र को ही कह दें कि कुछ सत्य बता दे मेरे बारे में तो वही हम सुन नहीं सकते…यह दशा हो गई है हमारी…आईना को सामने रखकर सुंदर प्रारुप तैयार किया है…।पढ़कर अच्छा करने का ही बोध हो इससे अधिक और क्या कहा जा सकता है…।
manya
hi
thanks for all the comments on my blog and thank you so much for reading . seems you were out somewhere its long you came on my blog
सचिन जी, समीर जी,रंजू जी, विकास जी, मनीष जी , मित्र दिव्याभ और रचना जी.. सबका बहुत शुक्रिया...जो आप लोगों ने इतना वक्त दिया.. और मेरी रचना को इतनी गहराई से समझा..
quite good!
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