मंज़िलें कम सही.. पर रास्ते और भी हॅं...सारे ग़ुल, ग़ुलाब ना सही .. पर महकते गुलिस्तां और भी हॅं..बनाया किसी और ने ताज़महल ना सही..पर मुमताज़ें हमने देखीं और भी हॅं..चांद से रोशन ना सही.. पर चमकते सितारे यहां और भी हॅं..तुम सी खुबसूरत ना सही.. पर प्यार भरी निग़ाहें यहां और भी हॅं..मिलता नहीं प्यार ना सही.. पर दिवाने यहां और भी हॅं..मुकम्मल ग़ज़ल हमसे बन ना सकी, ना सही..पर हमने गीत अधुरे लिखें और भी हॅं..पूरी हुई चाहतें सारी ना सही..पर हसरतें हमारी और भी हॅं..मिल ना सके तुम मुझे ना सही..पर ज़ीनें को यहां राहतें और भी हॅं..
"LET THE SPIRIT NEVER DIE.."
2 comments:
वाह...वाह...!पहली पूर्णरुपेण आशावादी
कविता...कुछ कह डाला सीमाओं के आगे भी
जहाँ हम अपने हम में और तुम अपने तुम
में होते हो...हममें तुम और तुम हममें होते हो।
jaroor kuchh aisa kahungi jo seemaon ke bandhan se pare hoga.. jus wait..
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