एक झीने पर्दे के उस पार,
मैने देखा.....
खुद को, अकेले तन्हा,
एक नदी के पास....
चुपचाप- खामोश,
देख रही थी मैं...
लहरों क आना,
साहिल के पत्थरों से टकराना..
और लौट पङना...।
मैं सुन रही थी,
उन अनसुनी आवाज़ों को...
जो वक्त के साथ,
खो गयी थी कहीं...
नीचे अकेली धरती,
उपर तन्हा-अनंत आकाश...
सन्नाटा फ़ैला था मेरे आस-पास,
ऐसे में.......
क्या फ़िर तुम्हें पुकारूं आज.....?
दोगे मेरा साथ......?
7 comments:
सुंदर, अति सुंदर रचना ।
रह रह कर देती हैं दस्तक
पर मिला नहीं कोई अब तक
जिसको ये अपना कह पायें
लहरें एकाकी हैं अब तक
चलते हैं साथ सभी दो पल
पर कोई साथ नहीं देता
यदि सुन पाता पुकार कोई
संभव है साथ कभी देता.
बहुत बढ़िया. आनन्द आ गया, खास कर इन पंक्तियों में:
ऐसे में.......
क्या फ़िर तुम्हें पुकारूं आज.....?
दोगे मेरा साथ......?
थोड़ा पहले खत्म कर दिया,दो लाइन मुझे और चाहिए थीं,कविता में पुकार तो है पर तुम्हारा तन्हापन थोड़ा कम दिखा…
Shukriya Prabhakar ji...
Raakesh JI bahut achche bhaav hain aapki kahi pankatiyon me.. dhanyawad..
Sameer Ji .. aapne mere udgaaron ko samjha .. unhe saraha.. sach me khushi hui...
Hi Divya.. well aainda dhyaan rakhungi ki koi ehsaas kam na pad jaaye ... par jab hum likhte hn to us samay itna dhyaan nahi rahta.. thnx for the suggestion...
मान्या जी,
आपकी कविताएं काफी अच्छी होती है, साथ मे चित्र भी एकदम मैचिंग वाले होते है। वैसे तो मै कविताओं वाले ब्लॉग ज्यादा देखता नही, क्योंकि कविताए मेरे से झिलती नही, लेकिन आपकी कविताएं, मुझे कविताएं कम, भावनाओं के सागर का कागज पर उकेरना ज्यादा लगता है।
अच्छा है, लगातार लिखती रहिए।
बहुत ही सुंदर रचना है यह ..पढ़ के बहुत अच्छा लगा !!
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