रोज हर एक नये सूरज के साथ मेरे मन में उठता है हर रोज सिर्फ़ एक सवाल कि ज़िन्दगी क्या है... और रोज ढूंढती हूं ज़िंदगी को अपने आस-पास। सुबह उठकर रोजमर्रा के काम निपटाती सोचती हूं क्या ये ज़िंदगी है... फ़िर मन कहता है नहीं। फ़िर जब घर से निकलती हूं दफ़्तर जाने को.. आस-पास लोगों की भीड को... अलग-अलग लोग सब अपनी जल्दबाज़ी में व्यस्त.. अपनी मन्ज़िल पर सबको पहुंचना है ज़ल्द से ज़ल्द, क्या ये ज़िन्दगी है.. नहीं-नहीं ये तो बेशक नहीं है। इतने में मेरी बस आ जाती है और खिडकी कि पास वाली सीट खाली देख वहीं बैठती हूं मैं.. और फ़िर सोचने लगती हूं। बस सिग्नल पर रूक जाती है और मैं देखती हूं सडक के किनारे बैठे एक परिवार को .. तीन लोग हैं वो.. कागज़ इकट्ठे करती पत्नी और लकडी पर आरी चलाता पति.. और उनका २-३ साल का बच्चा... और उसके हाथ में कोई खिलौना नहीं बाप ने थमा रखी थी एक छोटी आरी, और उसे चलाता देख खुश थे दोनों.. लगा शायद यहां है ज़िंदगी.. पर कैसी विडंबना है ये.. मन भर आया। फ़िर देखती हूं अपने आस-पास .. एक सांवली छोटी बच्ची.. इतना मासूम चेहरा, कोमल... हाथ में एक कागज़ का पैकेट थामे हुये.. बार-बार उसमें झांक रही थी.. फ़िर अपनी मां के तरफ़ देखा.. कुछ पुछा प्यारी आंखों से.. फ़िर मुस्करा कर पैकेट से बाहर निकाली एक जलेबी.. हर बार जब वो एक कौर खाती थी .. जो संतोष उसके चेहरे पर आता था वो तो शयद मैने छ्प्पन भोग खाकर भी नहीं पाया था कभी.. उसे खत्म कर अपनी उंगलियां चाट ली उसने और फ़िर एक मासूम तॄप्त मुस्कुराहट.. मैं भी मुस्कुरा पङी भीतर तक.. ज़िंदगी ये भी है.. सारी वितॄष्णा कहीं भाग गयी थी। तब तक दफ़्तर आ गया और मैं उतरी अपने स्टोपेज पर रोज की तरह... उफ़! सङक के बीच गिरा पङा था एक इन्सान.. शायद बेहोश था.. आस-पास से गुजर रही थी गाङियां और लोग भी पर कोई नहीं रूका... कौन झमेले में फ़ंसे.. यही सबका विचार था .. मैन भी उसे देखते हुये, और कुछ करने कि सोचते हुये गुजर गई , पर किया कुछ भी नहीं.. पूरा दिन मेरी आत्मा कचोटती रही मुझे.. खाना भी नहीं खाया गया, क्या यही है मेरे आदर्श.. क्या ऐसे जीनी है ज़िंदगी.. बस घर और दफ़्तर... क्या यही चाहा था अपने आप से... नहीं ऐसा तो नहीं चाहा था।
जब पार्टियों मे जाती हूं और देखती हूं नकली मुस्कान ओढे, लिपे-पुते चेहरे.. जैसे सारी दुनिया में सब खुश हैं ... पर ऐसा कुछ नहीं है.. सब अपनी भङास निकाल रहे होते हैं... और हाथों मे ग्लास या खाने की प्लेट और चर्चाएं पूरी दूनिया की.. गुस्सा इतना मानो सारा बोझ इन्हीं के सरों पर हो.. दिखावा .. क्या ये है ज़िंदगी... और रोज ऐसे ही बीत जाता है दिन.. मैं घर लौटती हूं.. वही सब कूछ देखते हुये सोचते हुये.. आकर फ़िर वही रोज के काम... फ़िर लिखती हूं कोई कविता .. कोशिश करती हूं ज़िंदगी को अर्थ देने का... और सो जाती हूं सोचते हुये .. क्या है ज़िन्दगी फ़िर कल जवाब ढूंढ्ने के लिये........
12 comments:
संवेदनशील मन के ये उद्गार पढ़ना अच्छा लगा!
yun laga ki koi main ban kar mujh se hi baat kar raha ho!kaise kahoon shaayad khud mujhe bhi yakeen nahin ho raha ki alfaaz dar alfaaz main bhi theek aisa hi socha karta hoon!!chahe woh sadak par ek gareeb khushhaal pariwaar,ya phir kissi ka kuch na karne ki wiwasta,ya phir mahfilon ka banawtipan!kuch bhi aisa nahin hai jisse maine mahsoosh na kiya ho! balki haar baar hota hai,baar baar hota hai!par jo tumne kaha na anth main ki... koshish karti hoon zindagi ko arth dene ki.. shayad sabse haseen baat yehi hai!
bahoot khoobsurat!
जिन्दगी भी बहुत अजीब है।
कभी सवाल है, कभी जवाब, कभी सुहाना सफ़र, कभी दर्द भरी कहानी।
एक शेर याद आया :
दुनिया जिसे कहते है, जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।
well anoop ji.. bahut dhanyawad jo aapne mere wichaar pasand kiye.. aage bhi comments ki umeed karti hun.
thnx sandeep nice to read this.. keep writing.
bahut dhanywad jitu ji
बहुत सुंदर, बधाई. अच्छा कलम किया है. जारी रहो.
एक दिन में ही इतना अगर सोंचेगी तो बस कट गयी जिंदगी.... उद्गार बडे भावुक है लेकिन क्या करें शायद यही है जिंदगी
बहुत ही संवेदनात्मक आलेख है। सुंदर!
जटिलताओं के पीछे भागते उंमादों को मन की गहराइयों से टटोलने का प्रयास किया है…अच्छा लगा।
जिंदगी हमेशा कुछ अधूरा क्यों छोड़े चली जाती है,क्यों…क्योंकि हम जैसे हमराही उसमें नया समर्पण डाल सकें…जिंदगी के नजारों को क्या देख पायेंगे जिंदगी की ही नजरों से…मन तो वही देखता है जो हम चाहते हैं।
जिसके पास जितना कम है..उसके लिए खोने के लिए कुछ नहीं है..इसीलिए ये संतोष..और छोटी छोटी खुशियों में जीने की आदत सी हो जाती है
वहीं दूसरी ओर और अधिक पाने की लालसा और जो कुछ है उसे खो जाने का भय सताता है..फिर अंदर फैलती कुटिलताओ के ऊपर नकली मुसकान तो होगी ही होगी ।
समीर जी आप मेरे ब्लोग पर आये और इसे पसन्द किया.. आपका बहुत धन्यवाद
शुक्रिया अतुल जी.. ऐसे ही उत्साह बढाते रहियेगा
तरूण जी .. सुझाव के लिये शुक्रिया..
शुक्रिया दिव्य.. मन तो बहुत देखना चाहता है और बहुत बार देख्कर अन्देखा कर देता है।
मनीष जी ... फ़िर आने के लिये बहुत साधुवाद..
बङे उत्तम विचार हैं आके.. अच्छा लग पढकर
रुका नहीं मैं आज उस तड़पते इंसा के लिये
गर है तड़प तो रुकुँगा कल हर इंसा के लिये
आपकी कुछ दूसरी कविताएँ भी पढ़ी...
आपका लेखन सुंदर एवं भावपूर्ण है...
बधाई !!
रीतेश गुप्ता
Hi Ritesh Ji.. Bahut achchha sher kaha h apne aur matlab bhi gahra h.. Sarahane ke liye shukriya.. aage bhi hausalaafjaai chahungi..
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