Sunday, August 19, 2007

वो हंसी सिर्फ़ लिख सकता है....


मैंने उसे कई बार लिखते देखा है...

हाथ में कलम लिये.. सर झुकाये..

शब्दों को शक्ल देते हुये...

और ये भी की वो सिर्फ़ खुशी लिखता है..

एक दिन मैंने कहा - अच्छा लगता है...

तुम इतने खुश हो.. खुशी लिखते हो..

हंसी बांट सकते हो...

उसने अपनी नज़रें उठाई.. कलम रोकी..

मेरी तरफ़ देखा और हलके से मुस्कुराया...

और कहा- मैं खुशी-हंसी बस लिख सकता हूं...

पर देखो.. मैं हंस नहीं सकता...

मेरे दर्द के साये इतनी गहरे हो चुके हैं...

की मुझे हंसने में भी दर्द होने लगा है..

पर हां.. मैं हंसी लिख लेता हूं....

और मैं बस खुशी ही लिखता हूं...

क्योंकि मैं सबको खुश देखना चाह्ता हूं..

शब्दों के सहारे ही सही.. खुशी देना चाहता हूं..

और ये कहकर वो चुप हो गया...

अब समझ आया था मुझे....

क्यूं वो अकसर चुप ही रहा करता था...

मैंने उसकी साफ़ गहरी आंखों मे देखा....

उनमें खुशी की चमक नहीं थी...

उनमें गहरे साये थे.. वो कुछ पनीली सी थीं..

उसने ठीक कहा था....

वो हंसी सिर्फ़ लिख सकता है...

अचानक हवा का तेज झोंका आया...

और उसके लिखे पन्ने बिखर गये...

वो उन्हें फ़िर से समेटने लगा...

मुझे लगा वो पन्ने नहीं...

अपनी हंसी समेट रहा था...

जो उसके होठों को छोड़...

उन कोरे पन्नों में समा गयी थी....







Monday, August 13, 2007

हे भारत मां!... मैं धन्य-धन्य.....


ये धरती कितनी सुंदर..

इतना स्नेह इसके भीतर..

जैसे मां का आंचल...

हे भारत मां! ...

मैं धन्य-धन्य तेरी बनकर..

तेरी हवा बहती मेरी सांसों में..

तेरे ही धान्य से हुआ पालन..

ये मेरी देह.. सब तेरा ही...

बहता है जो नसों में लहू बनकर..

हे भारत मां!...

मैं धन्य-धन्य तेरी बनकर...

बहुत विवश खुद को पाती मां..

जब देखती हूं.. तुझे पीड़ित...

तेरे अश्रु.. तेरे घाव..तेरी वेदना...

फ़िर भी तु मौन सब सहकर...

ये तेरा दर्द मुझे चीरता भीतर ही भीतर..

पर! कुछ भी तो नहीं कर पाती मैं..

देखती हूं सब सर झुकाये...

सोचती हूं कैसे है तुझमें इतनी शक्ति...

कैसे इतना धैर्य.. इतना सब सहती है...

फ़िर भी बरसता है स्नेह अनवरत..

वही निर्मल आंखें..चेहरे पे वही ममत्व..

तू नहीं..बदली मां!...

हम सब बदल गये... तुझ से जन्म लिया..

फ़िर तुझसे ही छल किया....

कितने घाव दिये तेरे सीने पर...

पीठ में भोंके कितने खंजर...

फ़िर भी तू देती स्नेहाशीष...

वही आंचल की छांव सर पर...

हे भारत मां!...
मैं धन्य-धन्य तेरी बनकर....









Wednesday, August 1, 2007

हां वो एक वेश्या है...... और तुम????


तुम उसे 'वेश्या' कहते हो...



क्योंकि उसने बेची है..अपनी देह..



अलग-अलग लोगों के साथ..



हर बार संबंध बनाये हैं उसने...



उसे हक नहीं समाज में..रहने का..



सम्मानित कहलाने का..



वो अलग है..तुम्हारी बहू-बेटियों से..



क्योंकि वो जैसे जीती है...



वो जीवन नरक है...



वो जो करती है...



वो पाप है...



उसे भूखों मर जाना था...



खुद को मिटा देना था..



पर खुद को बेचना नहीं था..



है.. ना?



पर एक बात कहो..



उन्हें क्या कहोगे तुम....



जिनकी रातें गुजरती हैं..



रोज़ एक नयी देह के साथ..



जिनके घर में पत्नियां भी हैं..



और प्रेमिकायें भी...



जो बाप हैं बेटियों के..



और भाई भी हैं.. बहनों के..



पर फ़िर भी खरीदते हैं देह..



और अलग-अलग रंग तलाशते है..



क्या वो 'बाज़ारू' नहीं?????



सिर्फ़ इसलिये की...



उन्होंने 'देह' बेची नहीं..



खरीदी है.....???!!!!



Saturday, July 21, 2007

"बांझ कौन है ?"




शादी के दो वर्ष बीत गये....


और वो 'मां' नहीं बन पाई...


वंश को एक चिराग ना दे पाई....


आस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदारों में....


कानाफ़ूसी,सुगबुगाहटें होने लगीं..


बांझ, निपूती, अपशकुनी जैसे..


अलंकारों से उसे नवाजा जाने लगा...


केवल ससुराल वालों ने ही नहीं...


अब तो 'सात जन्मों के साथी' ने भी...


उसे 'बांझ' कहना शुरु कर दिया था...


शब्दों की प्रताड़ना अब धीरे-धीरे...


शारीरिक यातना का रूप लेने लगी थी...


'एक बच्चा भी ना जन पाई' ये सवाल....


सबके होठों पर..और नज़रों में हिकारत...


सबकुछ उसकी आत्मा पर छ्प गया था...


पर 'वो' अब भी मौन साधे जी रही थी...


शायद यही मेरी नियति है..मान लिया था..


एक दिन पोते का मुंह देखने की लालसा में..


सास ने अपने बेटे की दूसरी शादी की बात की..


बाप बनने की ख्वाहिश में पति ने भी हामी भर दी..


सात जन्मों का साथ निभाने वाले ने...


तीन सालों में साथ छोड़ दिया था..और..


हुआ किसी और का सात जन्मों के लिये..


'वह' कब तक रहती अकेली निःसहाय...


उसने भी फ़िर से घर बसा लिया...


आज फ़िर दो और वर्ष बीत चुके हैं...


आज 'वह' एक बेटी की गौरवान्वित 'मां' है...


सुहागन, भागन जैसे अलंकार हैं....


और सुना है उसके पहले पति ने....


अपनी दूसरी बीवी को भी...


'बांझ' कहना शुरू कर दिया है....






Sunday, July 15, 2007

ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे.....कब समझोगे तुम...




ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे....कब समझोगे तुम...


समझ गयी ये दुनिया सगरी... पर कब समझोगे तुम....


तुम बिन मैं भयी जोगन...


कुछ रूक के.. कुछ थम के...


हर पल बरसे... मेरे नयन....


सब कहने लगे मुझे... दीवानी...


पर जाने कब.... कुछ कहोगे तुम....


ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे.... कब समझोगे तुम....




हर पल निरखूं... मैं बाट तिहारी.....


इस गली में.... उस डगर पर.....


हर जगह ढूंढू.... मैं तेरे कदम....


पर नहीं मिली कहीं... कोई तेरी निशानी....


जाने कब मिलोगे.... मुझसे तुम.....


ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे.... कब समझोगे तुम.....




गीत गाये कई तेरी प्रीत के....


अब निकले हैं सुर.. बस तेरी विरह के...


कब से पुकारे तुझे... इन सांसों की सरगम...


रीत गयी मेरी उमर... करके तोहे सुमिरन....


पर जाने कब.. सुनोगे मेरी तुम....


ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे.... कब समझोगे तुम......

Saturday, July 7, 2007

तुम ठूंठ नहीं हो....


मत कहो स्वयं को ठूंठ तुम...

क्योंकि मैं जानती हूं....

तुम ठूंठ नहीं हो....

तुम भी एक छायादार....

घने पेड़ हो....

बस वक्त की कड़ी धूप...

और गरम हवाओं के थपेड़ों ने...

सुखा दिया तुम्हारी नमी को....

और तुमने अपने पत्ते गिरा दिये...

और बन गये तुम छायाविहीन...

रूकता नहीं अब कोई राही भी यहां...

रह गये ये तना... और टहनीयां...

पर देखो फ़िर मौसम बदला है....

हवा में नमी है.. ठंडक है...

बादल छाये हैं... आसमां पर...

और बारिश होने लगी है...

इस नमी को सोख लो...

अपनी जड़ों में....

बहने दो इसे अपने भीतर....

देखना तुम फ़िर से खिल उठोगे...

नयी कोंपलें.... नये पत्ते... नये फ़ूल...

देखना राही फ़िर से रूकेंगे....

और ये तना.... टहनीयां....

बनेगी साक्षी तुम्हारे बीते कल की...

कि तुम ठूंठ नहीं थे.....

Saturday, June 30, 2007

तुम्हारा आईना हूं मैं.....


तुम्हारा आईना हूं मैं...

मैं तुम्हें दिखाता हूं...

तुम्हारी असल पह्चान...

तुम्हारी शख्सियत....

केवल तुम्हारा चेहरा ही नहीं..

देख सकता हूं मैं...

तुम्हारी आंखों... और....

तुम्हारे दिल में छुपा सच...

पर तुम्हारी नज़रें....

कभी अपनी आंखों में...

देखती ही नहीं....

और ना अपने दिल की..

तरफ़ देखते हो तुम....


हर सुबह तुम मुझमें...

निहारते हो खुद को....

और देख कर मुझ को..

मुस्कुराते हो तुम....

और खुश होकर...

निकलते हो घर से...

अपने चेहरे पर....

कई चेहरे लगाये......

शाम को लौटते हो...

चेहरे उतारते हो...

और फ़िर एक बार...

देखते हो मुझे....

पर झुकी नज़रों से...

और हट जाते हो...

असल चेहरा...

तुम्हें पसंद नहीं आता..


सच कहता हूं...

जिस दिन....

तुम्हारी नज़रों ने....

मेरी आंखों में...

देख लिया...

उस दिन से मुझे...

देखना छोड़ दोगे...

और कहीं भूले से...

जो उतरे मेरे दिल में...

सच कहता हूं....

मुझे तोड़ ही दोगे....