Wednesday, January 13, 2010

आफ़ताबी आगोश...


रात की खुमारी को....
जब सुबह.. आफ़ताब ने आगोश में भर लिया....
नम के होठों के फूल...
गर्म सीने पे हमने खिला दिये....


आफ़ताबी आगोश... मुझे कसता रहा...
मैं बर्फ़ानी नदी सी पिघलती रही....
पैरों तले.. ज़मी बहने लगी...
ज़िस्म धूप सा जलता रहा...



ख्वाब का कंबल ओढे... दो ज़िस्म सिमटे रहे....
थरथराती सांसों को... लब पीते रहे....
मेरी पलकें.. उसकी धड़कनों को.. छूती रहीं..
मेरी खुश्ब में .. वो मिलता गया..
मैं खुद को खोती रही....



बंद पलकें छू के... वो लौट गया...
नींद की.. गोद में.. लब मुस्कुरा दिये...
कानों में .. जाने क्या वो कह गया...
हया ने गालों पे हमारे... सुर्ख गुलाब खिला दिये......


वो साया अंबर सा.... मैं कोमल गीली जमीं सी..
वो गहरा सागर सा... मैं खोयी उसमें नदी सी...

5 comments:

Jitendra Chaudhary said...

बहुत सुंदर।
इस कविता को पढकर अनुभव फिल्म का एक गीत याद आ गया।
कोई चुपके से आगे, सपने सुलाके, मुझको जगाके बोले
कि मै आ रहा हूँ,
कौन आए ये मै कैसे जानूं।



कभी सुनना इसे अच्छा लगे।

अजय कुमार said...

खूबसूरत अंदाज में ,प्रेम मे पगी हुई शानदार रचना ,बधाई

Anonymous said...

Extremely wonderful. Congratulations.

Anonymous said...

शब्दों को संगीत की तरह बजाना...खूबसूरत गुलदस्ते की तरह सजाना। कोई आपसे सीखे। बेहतरीन रचना के लिए बधाई।

Amazing life said...

MASHA ALLAH..