Sunday, August 9, 2009

कहो ना...

क्या सुनाई देती है.... तुम्हें मेरी आवाज़ आज भी...
कहीं हवा में घुली- घुली सी....
जब गुजरते हो तुम... यादों के गलियारे से..
क्या मेरी परछांईयां... तुम्हें वहां आज भी मिलती है...
कहो ना... क्या आज भी शामिल है कहीं..
मेरा संग तुम्हारी राह में.....

क्या अब भी... मेरी आंखें रोकती है...
तुम्हारे बढ़ते कदम... और लौट पड़ते हो तुम....
फिर मेरी ही ओर....
सुनो तुम सच कहना.... अब भी डरते हो...
उन घनी पलकों से......

क्या अब भी सुनते हो तुम.. मेरी खामोशी...
मेरा डांटना... तुम्हारा डरना....
क्या सचमुच... एक ख्वाब था...शीशे का...
देखो ना गिरा है एक टुकड़ा...
मेरी पलकों से... चुभता है मेरे पांव में...
क्या अब भी दर्द होता है तुम्हें.... मेरे दर्द से..

क्या अनछूआ सा वो रिश्ता..
अब भी छूता है तुम्हें...
अब भी थामता है हाथ तुम्हारा... करता है जिद तुमसे..
क्या अब भी वजूद मेरा शामिल है.. तुम्हारी रूह में...

क्या लौटोगे तुम फ़िर कभी.....
लौटाने को दिन नये... रिश्ते पुराने.....
क्या कभी याद आयेंगे.... तुम्हें गुजरे ज़माने....
कहो ना..क्या अब भी मेरे ख्वाब रखे हैं.. तुम्हारे सिरहाने..

6 comments:

M VERMA said...

क्या अनछूआ सा वो रिश्ता..
अब भी छूता है तुम्हें...
कितना मासूम सा एहसास का प्रश्न रखा है आपने.
बेहतरीन रचना

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा!!

ओम आर्य said...
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ओम आर्य said...

ek behatrin rachana.....atisundar

Dayanand Arya said...

वो तेरे ख्वाब
अंगारों से
क्यूँ मेरी रातें जलाते हैं ...
काफी बढ़िया कविता !

दायरे said...
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