Sunday, October 21, 2007

वादा....


समंदर.... साहिल...

बलखाती मौजें...

भीगे अलसाये पत्थर..

सिंदूरी शाम....

थका-थका सा सूरज..

लौटते पंछी....

गीली पोली सी रेत...

धंसते हैं तेरे-मेरे कदम...

बनाते हैं निशां...

हम हाथ थामे.. चलते हैं..

नंगे पैर... आगे...

कभी.. जब..

पीछे मुड़ के देखती हूं...

रेत के निशां..

मिटा चुकी होती है...

कोई आती-जाती लहर..

नमकीन पानी से...

अधभींगा बदन...

छिल सा जाता है..

जो गुजरती है हवा...

टीसता है दर्द...

और अचानक...

मेरी हथेली पर...

कस उठती है...

तुम्हारी पकड़...





4 comments:

Udan Tashtari said...

आजकल कम लिखा जा रहा है मगर बहुत उम्दा. अच्छा लगा. बधाई.

Sajeev said...

waah.... wo sunduri shamen

Unknown said...

मेरी हथेली पर...

कस उठती है...

तुम्हारी पकड़...

इन शब्दों ने सच में कस कर पकड़ लिया एक पल...बहुत सुंदर।

Manish Kumar said...

अतीत कै खुशनुमा यादों और आज की वास्तविकता में हर इंसान डूबता उतराता है...कुछ ऐसा ही कह गई आपकी ये कविता।