कुछ दिनों पहले मैंने एक कविता अपने ब्लोग पर पोस्ट की थी "वो हंसी सिर्फ़ लिख सकता है" .. और वो पसंद भी की आप लोगों ने.. वो कविता मैंने जिनकी प्रेरणा से या यूं कहूं जिन पर लिखी थी.. उन्होंने.. उस कविता को थोड़ा रूपांतरित कर बड़ा सुंदर जवाब दिया है. मैं उसे यहां उसे पोस्ट कर रही हूं..... उन्होंने इसे शीर्षक दिया है मौलिकता.... उनके शब्दों में..
"प्रिय मान्या,
तुम ने अपनी कविता में मेरा चित्रण करने का अच्छा प्रयास किया…एक ऐसा प्रयास जो कुछ वर्ष पूर्व तक पूर्णत: सत्य था। पर गुज़रते समय के साथ जीवन बहुत एहसास करवा देता है। सच पूछो तो जीवन से अधिक बड़ी और सच्ची कोई पुस्तक नहीं। उसी पुस्तक तो पढ़ते-पढ़ते सैद्धांतिक रूप से जो कुछ सीख पाया, उसे तुम्हारी ही कविता के माध्यम से तुम्हें बता रहा हूँ। व्यावहारिक दृष्टीकोण से देखा जाये तो जो कुछ सीखा, उसे हर बार अपने जीवन में उतारने में तो पूर्णत: सक्षम नहीं हूँ पर हाँ जीवन को एक नयी दिशा अवश्य मिल गयी है…एक ऐसी दिशा जो कहीं पहुंचाती नहीं बल्कि स्वयं के पास वापिस ले आती है……वापिस वहीं जहां से सब कुछ आरंभ हुआ था। ......
तुम ने अपनी कविता में मेरा चित्रण करने का अच्छा प्रयास किया…एक ऐसा प्रयास जो कुछ वर्ष पूर्व तक पूर्णत: सत्य था। पर गुज़रते समय के साथ जीवन बहुत एहसास करवा देता है। सच पूछो तो जीवन से अधिक बड़ी और सच्ची कोई पुस्तक नहीं। उसी पुस्तक तो पढ़ते-पढ़ते सैद्धांतिक रूप से जो कुछ सीख पाया, उसे तुम्हारी ही कविता के माध्यम से तुम्हें बता रहा हूँ। व्यावहारिक दृष्टीकोण से देखा जाये तो जो कुछ सीखा, उसे हर बार अपने जीवन में उतारने में तो पूर्णत: सक्षम नहीं हूँ पर हाँ जीवन को एक नयी दिशा अवश्य मिल गयी है…एक ऐसी दिशा जो कहीं पहुंचाती नहीं बल्कि स्वयं के पास वापिस ले आती है……वापिस वहीं जहां से सब कुछ आरंभ हुआ था। ......
मौलिकता
उसने मुझे कई बार
लिखते देखा था...
हाथ में कलम लिये.. सर झुकाये ..…
शब्दों को रूप
देते हुये ...…
और ये भी:
कि मैं केवल खुशी लिखता था।
एक दिन उसने
कहा –
अच्छा लगता है...
तुम इतने खुश हो.. खुशी लिखते हो..
हंसी बांट सकते हो।
मैने अपनी नज़रें उठाई.. कलम रोकी ..
उसकी ओर देखा ,
हलके से मुस्कुराया...
और कहा -
कभी मैं खुशी -हंसी बस लिख सकता था…..
पर देखो ..
अब मैं मुस्कुरा भी सकता हूँ...
कभी मेरे दर्द के साये इतनी गहरे
हो चुके थे… ..
की मुझे हंसने में भी दर्द होने लगा था… ..
उसने मुझे कई बार
लिखते देखा था...
हाथ में कलम लिये.. सर झुकाये ..…
शब्दों को रूप
देते हुये ...…
और ये भी:
कि मैं केवल खुशी लिखता था।
एक दिन उसने
कहा –
अच्छा लगता है...
तुम इतने खुश हो.. खुशी लिखते हो..
हंसी बांट सकते हो।
मैने अपनी नज़रें उठाई.. कलम रोकी ..
उसकी ओर देखा ,
हलके से मुस्कुराया...
और कहा -
कभी मैं खुशी -हंसी बस लिख सकता था…..
पर देखो ..
अब मैं मुस्कुरा भी सकता हूँ...
कभी मेरे दर्द के साये इतनी गहरे
हो चुके थे… ..
की मुझे हंसने में भी दर्द होने लगा था… ..
पर अब ..
जब भी मैं कलम उठाता हूँ ....
बरबस ही होटों पर मुस्कुराहट पाता हूँ… ...
क्योंकि;
मैं सब कुछ समर्पित कर चुका हूँ;
अपना अहम, लालसा, आशा-निराशा …
एक ऐसा समर्पण;
जो किसी व्यक्ति-विशेष या किसी परमात्मा के प्रति नहीं
अपितु एक निर्वात मन:स्थिति है;
अच्छे-बुरे, खोने-पाने, सुंदर-कुरूप………के परे;
एक ऐसी अवस्था
जो मनुष्य को उसकी प्रारंभिक मूलता
से साक्षात्कार करवाती है।
और यह कहकर मैं चुप हो गया।
मैं देख सकता था:
उसकी गहरी आंखों में भी
इस अकथनीय सत्य की लौ जल चुकी थी
और उसे समझ आ चुका था
मेरे स्थिर मौन का रहस्य,
जो मेरे होंठों पर आभूषित था।
और ये भी;
कि मेरी पनीली आँखों के गहरे साये
विषाद के नहीं अपितु हर्ष के थे।
उसने ठीक कहा
था....
मैं हंसी लिख सकता हूँ...
पर अब उसे ज्ञात था
कि मैं एक ऐसी हँसी जी सकता हूँ
जो सर्वदा मौलिक है।
अचानक हवा का
तेज झोंका आया ...
और मेरे लिखे पन्ने बिखर गये।
मैने उन्हें समेटने की चेष्टा नहीं की
क्यों कि मेरी हंसी उन पन्नों में नहीं,
मेरे सर्वस्व में व्याप्त थी।
जब भी मैं कलम उठाता हूँ ....
बरबस ही होटों पर मुस्कुराहट पाता हूँ… ...
क्योंकि;
मैं सब कुछ समर्पित कर चुका हूँ;
अपना अहम, लालसा, आशा-निराशा …
एक ऐसा समर्पण;
जो किसी व्यक्ति-विशेष या किसी परमात्मा के प्रति नहीं
अपितु एक निर्वात मन:स्थिति है;
अच्छे-बुरे, खोने-पाने, सुंदर-कुरूप………के परे;
एक ऐसी अवस्था
जो मनुष्य को उसकी प्रारंभिक मूलता
से साक्षात्कार करवाती है।
और यह कहकर मैं चुप हो गया।
मैं देख सकता था:
उसकी गहरी आंखों में भी
इस अकथनीय सत्य की लौ जल चुकी थी
और उसे समझ आ चुका था
मेरे स्थिर मौन का रहस्य,
जो मेरे होंठों पर आभूषित था।
और ये भी;
कि मेरी पनीली आँखों के गहरे साये
विषाद के नहीं अपितु हर्ष के थे।
उसने ठीक कहा
था....
मैं हंसी लिख सकता हूँ...
पर अब उसे ज्ञात था
कि मैं एक ऐसी हँसी जी सकता हूँ
जो सर्वदा मौलिक है।
अचानक हवा का
तेज झोंका आया ...
और मेरे लिखे पन्ने बिखर गये।
मैने उन्हें समेटने की चेष्टा नहीं की
क्यों कि मेरी हंसी उन पन्नों में नहीं,
मेरे सर्वस्व में व्याप्त थी।
5 comments:
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति:
मैं हंसी लिख सकता हूँ...
पर अब उसे ज्ञात था
कि मैं एक ऐसी हँसी जी सकता हूँ
जो सर्वदा मौलिक है।
-बहुत अच्छा लगा पढ़कर. बधाई.
बहुत खूब !
कल पढ़ी थी....आज फिर...और कई बार पढ़ सकती हूँ।
बहुत सुंदर।
Really I appriciate with your poeam, how beautifully you describe about some one's feelings.
........... Now I can live and laugh.......Avi
समीर जी बेहद शुक्रिया आने का और पसंद करने का..
धन्यवाद मनीष जी...
शुक्रिया बेजी जी.. आपके इतने प्यारे शब्दों का...
ThanX.. Avinash.. for the feel..alwys keep living n alughing.. n keep coming..
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