शादी के दो वर्ष बीत गये....
और वो 'मां' नहीं बन पाई...
वंश को एक चिराग ना दे पाई....
आस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदारों में....
कानाफ़ूसी,सुगबुगाहटें होने लगीं..
बांझ, निपूती, अपशकुनी जैसे..
अलंकारों से उसे नवाजा जाने लगा...
केवल ससुराल वालों ने ही नहीं...
अब तो 'सात जन्मों के साथी' ने भी...
उसे 'बांझ' कहना शुरु कर दिया था...
शब्दों की प्रताड़ना अब धीरे-धीरे...
शारीरिक यातना का रूप लेने लगी थी...
'एक बच्चा भी ना जन पाई' ये सवाल....
सबके होठों पर..और नज़रों में हिकारत...
सबकुछ उसकी आत्मा पर छ्प गया था...
पर 'वो' अब भी मौन साधे जी रही थी...
शायद यही मेरी नियति है..मान लिया था..
एक दिन पोते का मुंह देखने की लालसा में..
सास ने अपने बेटे की दूसरी शादी की बात की..
बाप बनने की ख्वाहिश में पति ने भी हामी भर दी..
सात जन्मों का साथ निभाने वाले ने...
तीन सालों में साथ छोड़ दिया था..और..
हुआ किसी और का सात जन्मों के लिये..
'वह' कब तक रहती अकेली निःसहाय...
उसने भी फ़िर से घर बसा लिया...
आज फ़िर दो और वर्ष बीत चुके हैं...
आज 'वह' एक बेटी की गौरवान्वित 'मां' है...
सुहागन, भागन जैसे अलंकार हैं....
और सुना है उसके पहले पति ने....
अपनी दूसरी बीवी को भी...
'बांझ' कहना शुरू कर दिया है....