Saturday, July 21, 2007

"बांझ कौन है ?"




शादी के दो वर्ष बीत गये....


और वो 'मां' नहीं बन पाई...


वंश को एक चिराग ना दे पाई....


आस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदारों में....


कानाफ़ूसी,सुगबुगाहटें होने लगीं..


बांझ, निपूती, अपशकुनी जैसे..


अलंकारों से उसे नवाजा जाने लगा...


केवल ससुराल वालों ने ही नहीं...


अब तो 'सात जन्मों के साथी' ने भी...


उसे 'बांझ' कहना शुरु कर दिया था...


शब्दों की प्रताड़ना अब धीरे-धीरे...


शारीरिक यातना का रूप लेने लगी थी...


'एक बच्चा भी ना जन पाई' ये सवाल....


सबके होठों पर..और नज़रों में हिकारत...


सबकुछ उसकी आत्मा पर छ्प गया था...


पर 'वो' अब भी मौन साधे जी रही थी...


शायद यही मेरी नियति है..मान लिया था..


एक दिन पोते का मुंह देखने की लालसा में..


सास ने अपने बेटे की दूसरी शादी की बात की..


बाप बनने की ख्वाहिश में पति ने भी हामी भर दी..


सात जन्मों का साथ निभाने वाले ने...


तीन सालों में साथ छोड़ दिया था..और..


हुआ किसी और का सात जन्मों के लिये..


'वह' कब तक रहती अकेली निःसहाय...


उसने भी फ़िर से घर बसा लिया...


आज फ़िर दो और वर्ष बीत चुके हैं...


आज 'वह' एक बेटी की गौरवान्वित 'मां' है...


सुहागन, भागन जैसे अलंकार हैं....


और सुना है उसके पहले पति ने....


अपनी दूसरी बीवी को भी...


'बांझ' कहना शुरू कर दिया है....






Sunday, July 15, 2007

ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे.....कब समझोगे तुम...




ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे....कब समझोगे तुम...


समझ गयी ये दुनिया सगरी... पर कब समझोगे तुम....


तुम बिन मैं भयी जोगन...


कुछ रूक के.. कुछ थम के...


हर पल बरसे... मेरे नयन....


सब कहने लगे मुझे... दीवानी...


पर जाने कब.... कुछ कहोगे तुम....


ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे.... कब समझोगे तुम....




हर पल निरखूं... मैं बाट तिहारी.....


इस गली में.... उस डगर पर.....


हर जगह ढूंढू.... मैं तेरे कदम....


पर नहीं मिली कहीं... कोई तेरी निशानी....


जाने कब मिलोगे.... मुझसे तुम.....


ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे.... कब समझोगे तुम.....




गीत गाये कई तेरी प्रीत के....


अब निकले हैं सुर.. बस तेरी विरह के...


कब से पुकारे तुझे... इन सांसों की सरगम...


रीत गयी मेरी उमर... करके तोहे सुमिरन....


पर जाने कब.. सुनोगे मेरी तुम....


ढाई आखर मेरे प्रेम के सांवरे.... कब समझोगे तुम......

Saturday, July 7, 2007

तुम ठूंठ नहीं हो....


मत कहो स्वयं को ठूंठ तुम...

क्योंकि मैं जानती हूं....

तुम ठूंठ नहीं हो....

तुम भी एक छायादार....

घने पेड़ हो....

बस वक्त की कड़ी धूप...

और गरम हवाओं के थपेड़ों ने...

सुखा दिया तुम्हारी नमी को....

और तुमने अपने पत्ते गिरा दिये...

और बन गये तुम छायाविहीन...

रूकता नहीं अब कोई राही भी यहां...

रह गये ये तना... और टहनीयां...

पर देखो फ़िर मौसम बदला है....

हवा में नमी है.. ठंडक है...

बादल छाये हैं... आसमां पर...

और बारिश होने लगी है...

इस नमी को सोख लो...

अपनी जड़ों में....

बहने दो इसे अपने भीतर....

देखना तुम फ़िर से खिल उठोगे...

नयी कोंपलें.... नये पत्ते... नये फ़ूल...

देखना राही फ़िर से रूकेंगे....

और ये तना.... टहनीयां....

बनेगी साक्षी तुम्हारे बीते कल की...

कि तुम ठूंठ नहीं थे.....