Monday, December 25, 2006

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टुकड़े दिल के और कितने होने बाकी हॅ.. और कितना जलना हॅ जिन्दगी को अपनी हि ज्वाला मॅ.. और कितने इम्तिहान देने हॅ अभी .. और कितने कान्टॉ की पीड़ा तुमने लिखी है..और कितनी सान्सॅ लेनी हॅ इस दम घोन्टते धुयॅ मॅ.. कब तक सहमी रहॅगी भावनायॅ..कब तक बन्धन मॅ रहॅगे ये कदम.. कब खतम होगा ये इन्त्जार..

2 comments:

Divine India said...

दुनियाँ इतनी भी छोटी नहीं है,जिसमें हमारा दम निकल जाए
सार्त्र ने कहा है कि तुम्हारा ब्रह्नांड कितना विशाल है जिससे
तुम अपने खुशियों के क्षण स्वयं तलाश लो।रही बात इंतजार की
वो इंतजार से ही जाएगी।तुम्हारी काली पृष्टिका ही कविता का सच
बखान कर देती है,so keep going, with ur sentimental flow this will give u another way to live.

Monika (Manya) said...

hi divya nice to see u again.. thnx for showing me the way.. par tumhe kaali prishthika me meri kavita ka kya sach nazar aaya pata nahin.. but black is my favourite colour thts all..