
धुंध से भरे कुहासे से घिरे..सर्द हो चुके मेरे अह्सासों को फिर से जगाने.. ठन्डी, स्याह, सन्नाटे के बादलों से घिरी रात को फिर से जगमगाने.. उतरा हॅ चांद मेरे आंगन में.......जो तुम कहो तो थाम लूं, एक कोना चांद का मैं भी..और छुपा लूं अपनी हथेली में....तुम कहो तो आज सृंगार करुं चांदनी का..पहन लूं सितारों के गहने, सजा लूं चांद का टीका मांग में.. देखो चांद उतरा हॅ अपने आंगन में..आओ एक बार इस धवल चांदनी में.. इस सीले अंबर के नीचे..संग हो जायें हम..एक जान,एक जिस्म...आओ मिटा दूं सारी दूरियां.. भूला दुं ग़म की परछाईयां.. समेट लूं तुम्हें अपने आंचल में. हां, चांद उतरा है मेरे आंगन मे..एक बार तो छू लूं चांदी के इस गोले को.. समा लूं इसकी ठंडक अपने भीतर.. महसूस करूं इसकी रोशनी अपनी रूह तक..एक बार सूनूं इसकी खामोशी को.. और लिखूं कविता इसके सौन्दर्य पर.. बस अब कुछ देर बाकी है 'सहर' होने में... हां.. आज चांद उगा है मेरे आंगन में....
"बहुत रातें गुजारी हमने अमावस को सिरहाने रखकर,
चलो कुछ देर सोया जाये आफताब की गोद में.."