Monday, December 1, 2008

मैं भी अब जीना जानती हूं.....


एक लड़्की ..हूं मैं... बंधनों से बंधी हूं...

जन्म से ही... बेटी..बहन.... ये सुन-सुन बड़ी हुई..

राखी के बंधन बांधे मैंने.....

पर जाने कितने बंधनों में मै जकड़ी गई....

ईज्ज्त... आबरू.... हया..शर्म.....

जाने कितने परदों से मुझे ढका गया......

बाली.... झुमके..चूडियां.... पायल.....

इन जेवरों से.. उन परदों को कसा गया....

काजल....बिंदिया.... लाली....

इन सबसे....

मेरी आंखों... मेरे होठों पर बंधन लगाये गये.....

नीची नज़रों.. कांपते होठों... लंबे बालों...

में मेरा रूप निहारा गया......

यौवन ने गालों को.... और सुर्ख किया...

परदों को और जकड़ा गया....

सात परदो से ढके बदन को...

जाने कैसे सबने जान लिया...

कविताओं.. शेरों ... तस्वीरों..

जाने कहां -कहां.....

कभी स्याही.. कभी रंगों से....

मेरा अक्स उतारा गया.........

धीमी सदा की तारीफ़ हुई......

अश्कों से आंखें और हसीन बनीं....

डर लगा उन्हें और ज्यादा........

तो सिंदूर... मंगलसूत्र.... अंगूठी..... मेंहंदी...

नये सिंगार .. नये जेवरों से...

सात जन्मों के नये बंधन से.....

मुझे फ़िर बांधा गया......

पत्नी.. बहू..मां........

नये नामों से फ़िर जकड़ा गया....



अब दम घुटने लगा है...

इन परदों... इन बंधनों में..

एक सांस अपनी ...

खुले आसमां के तले...

चाहती हूं.......

अब किसी के लिये नहीं.....

बस खुद को जीना चाह्ती हूं.....

सिंगार सारे छोड़ दिये....

सारे जेवर तोड़ दिये.......

इस बोझ को उतार फ़ेंका है मैने....

अब कमर सीधी कर चलना चाह्ती हूं....

खुली आंखें... खुली आवाज़.....

मेरी पह्चान बने अब.....

मैं भी अब जीना जानती हूं..............










1 comment:

michal chandan said...

बहुत खूब मान्या जी, एक लड़की के दर्द, उसके जज्बात और उसके सपनों को बहुत ही खूबसूरती से पिरोया है आपने, आप हमेशा ऐसे ही लिखती रहें।