ये धरती कितनी सुंदर..
इतना स्नेह इसके भीतर..
जैसे मां का आंचल...
हे भारत मां! ...
मैं धन्य-धन्य तेरी बनकर..
तेरी हवा बहती मेरी सांसों में..
तेरे ही धान्य से हुआ पालन..
ये मेरी देह.. सब तेरा ही...
बहता है जो नसों में लहू बनकर..
हे भारत मां!...
मैं धन्य-धन्य तेरी बनकर...
बहुत विवश खुद को पाती मां..
जब देखती हूं.. तुझे पीड़ित...
तेरे अश्रु.. तेरे घाव..तेरी वेदना...
फ़िर भी तु मौन सब सहकर...
ये तेरा दर्द मुझे चीरता भीतर ही भीतर..
पर! कुछ भी तो नहीं कर पाती मैं..
देखती हूं सब सर झुकाये...
सोचती हूं कैसे है तुझमें इतनी शक्ति...
कैसे इतना धैर्य.. इतना सब सहती है...
फ़िर भी बरसता है स्नेह अनवरत..
वही निर्मल आंखें..चेहरे पे वही ममत्व..
तू नहीं..बदली मां!...
हम सब बदल गये... तुझ से जन्म लिया..
फ़िर तुझसे ही छल किया....
कितने घाव दिये तेरे सीने पर...
पीठ में भोंके कितने खंजर...
फ़िर भी तू देती स्नेहाशीष...
वही आंचल की छांव सर पर...
हे भारत मां!...
मैं धन्य-धन्य तेरी बनकर....
8 comments:
ये धरती सचमुच सुंदर है...और आपकी कविता भी।
खासकर इन पंक्तियों में तो अद्भुत शक्ति है-
कितने घाव दिये तेरे सीने पर...
पीठ में भोंके कितने खंजर...
फ़िर भी तू देती स्नेहाशीष...
वही आंचल की छांव सर पर...
हे भारत मां!...मैं धन्य-धन्य तेरी बनकर....
Bahut hin sundar rachna.......
Jo Sacchai hai ussey bayaan karti hui..
Praayon ke dieye ghaav bharey bhi nahi..
aur apney ney haraa kar dieye...
मान्या,
ठीक है… भारत माता का दर्द लिखने की कोशिश हुई है…
भावना जो समर्पित होनी चाहिए वह कड़ी कमजोर है…
कविता के भाव अच्छे लगे।
गिरीन्द्र जी,संजीव जी और मनीष जी आप्लोगों का बेहद शुक्रिया...
दिव्याभ ठीक कहा.. बस एक कोशिश थी.. जो शाय्द पूरी नहीं पाई,...
ये मेरी देह.. सब तेरा ही...
बहता है जो नसों में लहू बनकर..
हे भारत मां!...
मैं धन्य-धन्य तेरी बनकर...
एक अमर गीत की नींव रखती है आपकी कविता....बधाई
प्रिय मन्या,
मुझे तो आपका प्रयास पसँद आया -कहाँ हो ? कैसी हो ? :)
स्नेहाशिष
-- लावण्या
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