Monday, May 14, 2007

मैं... एक नाकाम कोशिश...


मेरा मन...

एक सीला.. अंधेरा कमरा...

जिसमें सन्नाटा.. पसरा हो..


मेरे सपने...

उस अंधेरे में..एक उदास..

रोशनी की लकीर से...


मेरी धड़कन...

कमरे में गुजरती... हवा की..

सरसराहट सी... सहमी हुई..


मेरे अह्सास...

उस अंधियारे में..

खो चुके उजालों से...


और तुम...

अचानक उतर आई.. सपनीले..

रंगों की धूप सरीखे...


और मैं....

उस धूप को...मुट्ठी में..

बंद करने की..

एक नाकाम कोशिश...

18 comments:

Udan Tashtari said...

सुंदर और कोमल अभिव्यक्ति, बधाई.

परमजीत सिहँ बाली said...

मान्या जी,भावो की आभिव्यक्ति बहुत सुन्दर है।अच्छी रचना है।

Unknown said...

bahut hi sunder rachna hai manya ji..

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर ! मान्या कहाँ से ले आती हो ऐसे सुन्दर भाव ?
घुघूती बासूती

Manish Kumar said...

अच्छी रचना है।
आपकी कविता इस शेर की याद दिला गई

उदासियों का ये पत्थर आँसुओं से नम नहीं होता
हजारों जुगनुओं से अंधेरा कम नहीं होता

Unknown said...

बहुत बहुत सुन्दर !!

Sajeev said...

उदास..
रोशनी की लकीर
... उदास मगर गहरी ..... बुझी हुई , मगर सच्ची ...

Divine India said...

this is...you...and your Gr8 work...यही अपेक्षा थी तुमसे जो आज जाकर पूरी हुई…मुझे लगता है की यह तुम्हारी गागर में सागर भरने वाली प्रथम दार्शनिक अभिव्यक्ति है…चाह तो रहा हूँ की बहुत लिख दूं मगर कुछ तुम्हारे लिए भी छोड़ता हूँ!!!
Gr8...keep itup.

Divine India said...

पूरानी कविता क्यों हटा ली…और पुन: मेरी Fav...कविता जो तुमने लिखी थी एक बार देखना…!!!

Anonymous said...
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Anonymous said...

Manya ji apki ek aur behtarin rachna ke liye badhai
apni ore se yehi kahna hai mughe ki kosis to sabd he bana hai tab tak ke liy jab tak bat puri nahi ho jati,
isliy kya harz hoga
yedi ek aur kosis ki jaay, hai na :-)
punah badhai..
(sorry mera fon hindi enabled nahi hai)
- RANJAN

Monika (Manya) said...

समीर जी,परम्जीत जी, बासुती जी.. आप लोगों का बहुत शुक्रिया.. उत्साह्ववर्धन के लिये..

राहुल.. शुक्रिया फ़िर आने के लिये..

बेजी जी.. बहुत धन्यवाद आपके शबदों का..

Monika (Manya) said...

मनीष जी.. बहुत अच्छा शेर कहा आपने.. शुक्रिया...

सारथी जी.. बहुत धन्य्वाद जो आपने भावों को सम्झा..

Chandra S. Bhatnagar said...

कोशिश के परे
-------------

मेरा मन:
एक अनन्त अन्तरिक्ष
जिस में हर ओर तारे छिटके हों…

मेरे सपने:
उस अन्तरिक्ष में उड़ने वाले
स्वतंत्र पंछी…

मेरी धड़कन:
उन पंछियों के खुले पंखों की तरह
बेबाक…अंगड़ाई लेती हुई…

मेरे एहसास:
एक लंबी ऊंची उड़ान…
…न कोई बंधन…न सीमा

और तुम:
वो सक्षम बयार
जो मुझे इतनी ऊंची परवाज़ दे…

और मैं:
एक तटस्थ दर्शक…
बिना किसी कोशिश…या लक्ष्य के।

Gee said...

मान्या जी
उदास पर सुन्दर कविता,भावपूर्न हे अगर अन्त उजाले की तरफ़ जाता तो बहुत अछा लगता

Monika (Manya) said...

Shukriyaa Shekhar ji.. itna accha uttar dene ke liye. kyaa kahun..bahut aashayen hain ismen..

Gaaytri Ji bahut shukriya.. padhne aur sarahana karne ke liye..

Chandra S. Bhatnagar said...

आपने मेरे उत्तर की इज़्ज़तफ़्ज़ाई की। बहुत शुक्रिया। नहीं मैं अक्सर उत्तर कविता में तो नहीं दे सकता पर आप की कविताओं में बहुत दर्द है। इस लिये बरबस ही एक आशावादी कविता फूट पड़ी मन में। सोचा शायद आप को change अच्छा लगे।

हाँ आप के English blog पर गया था पर समझ नहीं आया कि टिप्पणी कैसे छोड़ी जाये Yahoo 360 पर्। क्र्पया मार्गदर्शन करें।

Chandra S. Bhatnagar said...

आप ने मेरी podcast पर अपने comments दिये। मैं आभारी हूँ। आप को पसंद आयी। मेरा धन्यवाद स्वीकार करें। और भी podcasts हैं मेरी उस site पर्। कभी फ़ुर्सत में सुनिये। आप के comments का इंतज़ार रहेगा। अपने poetry blogs पर अपनी और अपनी माँ की एक नयी रचना post की है। देखियेगा।