Friday, April 13, 2007

शायद तुमने घर बदल लिया है....




पहले जब भी मैं तुम्हें...अपने घर के आंगने से...


पुकारा करती थी.. तुम सुन लिया करते थे...


कई बार छ्त की मुंडेर से...


या अपने कमरे की खिड़की से....


मेरे आंगन में झांका करते थे तुम....


और मैं आंगने में लगे नीम से....


बंधे झूले पर बैठी तुम्हें..


चुप के से देखती थी...


कई बार तुम चोरी -चोरी भी...


देखा करते थे मुझे...


जब मैं एक पैर पर खेल रही होती थी...


या बातें कर रही होती गुड़ियों संग..


या नाच रही होती दादी के गीत पर...


तुम्हें झांकता देख मैं शरमा कर..


अंदर दौड़ जाया करती थी..


तुम्हारा वो छत पर टहलने आना...


और मैं बाल सुखा रही होती थी...


और कभी कोई किताब हाथ में लिये..


यूं ही घूमना और मुझे देखना..


कई बार हम अपनी-अपनी छ्तों से..


शाम के सूरज को साथ डूबता हुआ देखते....




पर अब तुम कहीं नहीं दिखते...


ना छ्त पर..ना खिड़की से झांकते...


मेरी कोई आवाज़ तुम तक नहीं पहुंचती...


कई बार मैं आहट होते ही दौड़ कर आती हूं...


की शायद तुम आये हो...
पर तुम कहीं नहीं होते..


फिर एक दिन मैने तुम्हें चिट्ठी लिखी...


तुम्हारी कोई खबर तो मिले...


पर आज वो भी लौट आई है..


लिखा है पता गलत था...


शायद तुमने घर बदल लिया है...

17 comments:

Reetesh Gupta said...

मान्या,

भावनाओं का सुंदर प्रवाह मन को छूता है

Anonymous said...
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Udan Tashtari said...

काफी दिन बाद लिखा गया है, बहुत बेहतरीन!! बधाई!

Manish Kumar said...

अच्छा लिखा है आपने !

Mohinder56 said...

Sunder likha hae aap ne Manya Ji.

Or haan.. hamara makaan toe vaheen per hae... aap hi bahut din se visit nahi diye.. ha ha

Divine India said...

मान्या,
लगता है इन दिनों में काफी कम लिखा है
लो हम भी आ ही गये...अब क्या कहूं इस
कविता के संदर्भ में...झुरमुटों के कोहरे से कोई
तकता हजारों रात है...जरा मुंडेर पर कुछ देर
ठहरो तो सांसे रोक कर वहीं पत्तों पर तुम्हारा
ही पता लिखा होगा...।

विजेंद्र एस विज said...

दिनो बाद ..अच्छा सा पढने को मिला..कविता सुन्दर है..
बधाई..

Monika (Manya) said...

रीतेश जी, मनीष जी, समीर जी. मोहिन्दर जी आप लोगों क बहुत शुक्रिया जो मेरी रचना को पसंद किया.. यूं ही हौसला बढाते रहियेगा..

Monika (Manya) said...

दिव्याभ आइये आपका स्वागत है.. इतने दिनों बाद.. हां इधर काफ़ी कम लिखा है.. पर तुम्हारे लिये अच्छा है कम पढना पड़ेगा .. अरे चौकिये मत आपको सारे पोस्ट पढने है.. क्योंकि अभी कुछ दिनों तक और नहीं लिखूंगी..

रही बात रचना की.. बस इतना कहूंगी मेरी रचना में कुछ नहीं .. पर तुम्हारी कही पंक्तियां जरूर बहुत अच्छी है.. धन्यवाद जो मेरे भाव सम्झे और इतना अच्छा कहा...

Chintan Shukla said...

hi manya..thnx a lot for the compliments..
and yes both the poems are old one..actually put them there for some official review (something official and I am putting them forward as my achievements :P)..

its been long that i have written anything..have been keeping busy..but soon will be back, this time with some hard hitting articles!!

रंजू भाटिया said...

bahut khoob manya.....

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

मान्या जी भावनाओं का सुन्दर प्रभाव आपकी कविता में नज़र आया.
आंगन,खिड्की और न जाने कितनी यादें इस कविता में हर किसी को अपनी ओर खिंचती नजर आ रही है.
शुक्रिया.
गिरीन्द्र्

Vivek Gupta said...

बहुत बेहतरीन लिखती हैं आप !

विवेक

Niks said...

वाह वाह मान्या, बहुत ख़ूब. बहुत अच्छा लगा पढ़ कर यूँही लिखती रहो
वैसे कविताओं में मेरी कोई ख़ास दिलचस्पी तो नही फिर भी तुम्हारी कल्पना क़ाबीले तारीफ़ है

Monika (Manya) said...

hi chintan thanx for coming...

शुक्रिया रंजू जी...

धन्यवाद गिरिन्द्र जी.. जो आपको कविता इतनी अच्छी लगी..

शुक्रिया विवेक जी.. जो मेरा लिखा पसंद किया

शुक्रिया आशीष जो बिना किसी विशेष रूचि के भी इतना वक्त दिया और सराहा.. उम्मीद है फ़िर आओगे

Unknown said...

Ati sunder manya ji aapki ye kavita pata nahi kisi sajjan ko pasand nahi aai lekin mere dil ko choo gai..sach me bahut sunder hai..kavita..

Anonymous said...

Manya ji aapki ye kavita mughe ab tak sabse acchi lagi kuki sayed isme jivan ke prati ek aash chupi huyi hai..
Bura na maane to mere pas iska ek jawab v hai :-)

jina yaha , marna yaha,
iske siwa jana kaha..
Ji chahe jab humko aawaaj do, hum hain wahi,
hum the jaha'
- RANJAN