Thursday, December 21, 2006

ek koshish..

इस मधुर सुन्दर जीवन कि चाक पर खुद को पाती हुंएक कुम्हार सा..सपनो कि गीली मिट्टी से लीपे हॅ मेरे हाथ.. उस नम मुलायम मिट्टी को कोशिश कर रही हुंएक शक्ल देने कि,एक चेहरा मेरे एह्सासों का..सच कहुं तो ये कोशिश हॅ तुम्हे एक स्वरुप देने की..तुम जो एक स्वप्न हो मेरे लिये एक रह्स्य..जानती हुं तुम्हारे असीम व्यक्तित्व को स्वरुप देना आसान नहीं मेरे लिये..पर फिर भी चाहती हुं तुम्हे समेटना अपनॅ हाथों में..और छुना चाहती हुं अपनी उंगलियों से तुम्हें.इस स्नेहसिक्त मिट्टी कि सोन्धी महक.. मुझे एह्सास दिलाती हॅ तुम्हारीमहक का.. मानो की तुम कहीं आस-पास हो, और मै बन्ध जाती हुं सम्मोहन से..हर पल ढुंढ़ती हॅं तुम्हे मेरी दृष्टि..,पर तुम तो केवल एक स्वप्न हो, एक रहस्य..ऐसा तिलस्म जिसमे खो चुकी हुं मैं..और कोशिश करती हुं अपने सपनों को मुर्त्त रुप देने की.जैसे जैसे मेरि उन्गलियां उस नम मिट्टी को शक्ल देती जाती है वैसे वैसे भावनायें उद्वेलित करती हॅ मेरे मन को. एक खुशी एक सम्मोहन.. खुद खो रही हुं अपनी ही कृति में..मेरी कृति .. एक कोशिश तुम्हे समझने की.. अब सोचती हुं कुछ रंग भरुं इसमें.. अपनी भावनाओं के..रंग जिनसे एह्सास हो मुझे तुम्हारे रुबरु होने का..तुम्हारे असीम व्यक्तित्व का.. उस अनन्त छवि का. उस निर्मल प्रेम सागर का.. जो स्वयम ही प्यासा हॅ.. और मै उस सरिता समान .. जिसे एह्सास हॅ सागर कि त्तृष्णा का.. और मॅ व्य़ाकुल हो चल पड़ी हुं .. तुममे समाहित होने को.. तुम्हारे स्नेह में आकन्ठ डूब जाने को.. और तुम्हे संग ले भीग जाने को.. खो जाने को.. पर तुम तो एक स्वपन हो अब तक , एक रह्स्य और मैन एक नाकाम कोशिश तुम्हे जानने कि.. पर तुम्हारे स्नेह से सिक्त हॅ हृदय मेरा...

2 comments:

Divine India said...

तुम्हारे अंदर के निर्मल भाव अत्यंत
विस्तारित हैं किंतु भावनाओं में द्वंद्व है।
जीवन धारा को बाहर बहने की बजाए
थोड़ा अंदर बहने दो स्वप्न की मूर्तता भी
झलकेगी और अकुलाहट भरा मन दृष्य
अलोकित होगा।कभी‍ कभी उस व्यक्तिव की
प्रतीक्षा में सारा जन्म निकाल जाता है इसकारण
पूर्ण आनंद में हीं तुम्हारी अभिव्यक्ति स्वयं मूर्त हो
जाएगी.मैने तुम्हारे प्रश्न का जवाब अपने चिठ्ठे पर
दे दिया है।

Monika (Manya) said...

hi divya.. thnx for readng n commentng..sach kahte ho bhavo me dwand h.. kyunki man vyakul h.. us aseem vyaktitva ke kiye.. praktiksha ka apna sukh h.. jaanti hun koi anth nhn h is intezaar ka.. par phir bhi khush hun..pata nhn tumhe kyun laga ki jeevan dhara ka mod bahirmukhi h jabki ye swapan to antarmann ka h..par dhanya vaad tumhara jo itna socha .. dhyaan rakhungi..