साथ होकर भी जाने क्यूं.... तन्हाई का एह्सास है...
हाथ थामे रहता है कोई... फ़िर भी लगता खाली हाथ है...
जाने कैसा सूनापन गहराया.....
चलती हूं जिस भीड़ में.... इंसानों का नहीं....
बस परछांईयों का साथ है.....
'सच'... में जीने को जाने क्यूं.... दिल करता ही नहीं....
अजनबी रिश्तों में.... जिंदगी की तलाश है.....
ख्वाब नहीं कोई..... बस एक झूठा सच है ये.....
जलेगा नहीं दीप कोई..... ये बुझती लौ सी आस है....
भटकता है 'मन' दर-ब-दर... खाता है ठोकरें......
इसे उजड़ी बस्ती में.... घर की तलाश है....
तेज हवाओं के रुख से.....
यहां डरता है कौन.....???
ये तो बारिश से... भड़कने वाली आग है.....
बुझे- बुझे से जज्बात..... सहमी-सहमी जुबां....
सूखे हुये पानी से.... गला अब तर होता नहीं.....
ये गीले आंसूओं से.... बुझने वाली प्यास है....
जाने कहां खोया है खुद को.....
मुझे ही नहीं.... आईने को भी.....
मेरे अक्स की तलाश है........