समंदर.... साहिल...
बलखाती मौजें...
भीगे अलसाये पत्थर..
सिंदूरी शाम....
थका-थका सा सूरज..
लौटते पंछी....
गीली पोली सी रेत...
धंसते हैं तेरे-मेरे कदम...
बनाते हैं निशां...
हम हाथ थामे.. चलते हैं..
नंगे पैर... आगे...
कभी.. जब..
पीछे मुड़ के देखती हूं...
रेत के निशां..
मिटा चुकी होती है...
कोई आती-जाती लहर..
नमकीन पानी से...
अधभींगा बदन...
छिल सा जाता है..
जो गुजरती है हवा...
टीसता है दर्द...
और अचानक...
मेरी हथेली पर...
कस उठती है...
तुम्हारी पकड़...