मैंने उसे कई बार लिखते देखा है...
हाथ में कलम लिये.. सर झुकाये..
शब्दों को शक्ल देते हुये...
और ये भी की वो सिर्फ़ खुशी लिखता है..
एक दिन मैंने कहा - अच्छा लगता है...
तुम इतने खुश हो.. खुशी लिखते हो..
हंसी बांट सकते हो...
उसने अपनी नज़रें उठाई.. कलम रोकी..
मेरी तरफ़ देखा और हलके से मुस्कुराया...
और कहा- मैं खुशी-हंसी बस लिख सकता हूं...
पर देखो.. मैं हंस नहीं सकता...
मेरे दर्द के साये इतनी गहरे हो चुके हैं...
की मुझे हंसने में भी दर्द होने लगा है..
पर हां.. मैं हंसी लिख लेता हूं....
और मैं बस खुशी ही लिखता हूं...
क्योंकि मैं सबको खुश देखना चाह्ता हूं..
शब्दों के सहारे ही सही.. खुशी देना चाहता हूं..
और ये कहकर वो चुप हो गया...
अब समझ आया था मुझे....
क्यूं वो अकसर चुप ही रहा करता था...
मैंने उसकी साफ़ गहरी आंखों मे देखा....
उनमें खुशी की चमक नहीं थी...
उनमें गहरे साये थे.. वो कुछ पनीली सी थीं..
उसने ठीक कहा था....
वो हंसी सिर्फ़ लिख सकता है...
अचानक हवा का तेज झोंका आया...
और उसके लिखे पन्ने बिखर गये...
वो उन्हें फ़िर से समेटने लगा...
मुझे लगा वो पन्ने नहीं...
अपनी हंसी समेट रहा था...
जो उसके होठों को छोड़...
उन कोरे पन्नों में समा गयी थी....