पहले जब भी मैं तुम्हें...अपने घर के आंगने से...
पुकारा करती थी.. तुम सुन लिया करते थे...
कई बार छ्त की मुंडेर से...
या अपने कमरे की खिड़की से....
मेरे आंगन में झांका करते थे तुम....
और मैं आंगने में लगे नीम से....
बंधे झूले पर बैठी तुम्हें..
चुप के से देखती थी...
कई बार तुम चोरी -चोरी भी...
देखा करते थे मुझे...
जब मैं एक पैर पर खेल रही होती थी...
या बातें कर रही होती गुड़ियों संग..
या नाच रही होती दादी के गीत पर...
तुम्हें झांकता देख मैं शरमा कर..
अंदर दौड़ जाया करती थी..
तुम्हारा वो छत पर टहलने आना...
और मैं बाल सुखा रही होती थी...
और कभी कोई किताब हाथ में लिये..
यूं ही घूमना और मुझे देखना..
कई बार हम अपनी-अपनी छ्तों से..
शाम के सूरज को साथ डूबता हुआ देखते....
पर अब तुम कहीं नहीं दिखते...
ना छ्त पर..ना खिड़की से झांकते...
मेरी कोई आवाज़ तुम तक नहीं पहुंचती...
कई बार मैं आहट होते ही दौड़ कर आती हूं...
की शायद तुम आये हो...
पर तुम कहीं नहीं होते..
फिर एक दिन मैने तुम्हें चिट्ठी लिखी...
तुम्हारी कोई खबर तो मिले...
पर आज वो भी लौट आई है..
लिखा है पता गलत था...
शायद तुमने घर बदल लिया है...