Friday, January 26, 2007

आज क्या है.. गणतंत्र दिवस ?


आज गणतंत्र दिवस है...( याद है ना?)... आप सब को मेरी हार्दिक शुभकामनायें.. मुझे बचपन से स्वंतत्रता दिवस/गणंतत्र दिवस ये दोनों दिन बहुत अच्छे लगते हैं।जब छोटी थी तब स्कूल जाना परेड में भाग लेना, झंडा फ़हराना, फ़िर शपथ ग्रहण मुझे ये सब बहुत पसंद थे। मुझे याद है जब मैं छोटी थी मम्मी से हमेशा इन दिनों पर कुछ पकवान बनाने कि जिद करती थी, जब पहली बार कहा था तो मम्मी ने पूछा था क्यों ? मैने कहा "क्यों नहीं जब होली, दिवाली पर बनाते हो तो आज क्यों नहीं ? ये तो पूरे देश के त्योहार हैं और तब से आज तक ये सिलसिला जारी है.. बस अब खाना मै बनाती हूं। इन दिनो में सुबह उठ्ते हि चारों तरफ़ बजते देशभक्ति के गीत और लहराते-फहराते तीन रंग मन को आंनद से उमंगो से भर देते थे।

पर आज कि सुबह तो कुछ और ही थी। सुबह उठी तो चारों तरफ़ शांति छाई थी न कोइ कोलाहल ना ही कोई शोर.. अरे आज तो छुट्टी है ना.. फिर किसे जल्दी है उठकर कहीं जाने की! कहीं देशभक्ति गीत बजना तो दूर की बात किसी भी इमारत पर मुझे वो तिरंगा तक नहीं दिखा। खुद हमारे कोम्प्लेक्स मे दो दिन पहले सरस्वती पूजा बङी धूमधाम से मनाई गई थी पर आज सब सो रहे थे।मेरे कमरे की खिङकी के ठीक सामने एक स्कूल दिखता है.. मैंने सोचा यहां तो जरूर कोई कार्यक्रम हो रहा होगा ये सोच कर वहां झांका, पर.. सूना पङा था विद्यालय का प्रांगण। ये है देश के भावी नागरिकों कि तैयारी...????!!!!!
मैंने सोचा कि टेलीविज़न आन करती हूं शायद एह्सास हो की आज गणंतत्र दिवस है, पर मेरे मन की अभिलआषाओं को और निराश करते हुये किसी चैनल पर ऐसा कुछ नहीं दिखाई दिया जिससे ये याद आता कि आज.....। हां कुछ देर बाद नेशनल चैनल पर परेड का सीधा प्रसारण जरूर आने वाला था।पर क्या आज यही रह गया है २६ जनवरी या १५ अगस्त का महत्व हमारे लिये.. ? क्या सिर्फ़ एक और छुट्टी का दिन.. क्या हमारे दिलों मे देश के प्रति प्यार बिल्कुल ही खत्म हो चुका है.. क्या हम देश के प्रति संवेदनहीन हो चुके हैं.. ? क्यों आज का युवा भारतीय वेलेंटाइन डे, फ्रेंडशिप डे या रोज़ डे कि तरह १५ अगस्त या २६ जनवरी की तरफ़ आकर्षित नहीं है। क्या सिर्फ़ सेना के जवानों की परेड और स्कूली बच्चों के प्रोग्राम ही काफी है हमारी जिम्मेदारी पूरी करने के लिये ..? क्यों हम आज के दिन पिकनिक या मूवी जाना ज्यादा पसंद करते है...? क्यों हम भूल गये हैं स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस को .. क्यों ये सिर्फ़ २६ जनवरी या १५ अगस्त है.. अवकाश का एक और दिन..?

और जाते-जाते एक और अंतिम किन्तु मह्त्वपूर्ण सवाल..... Republic Day... गंणतंत्र दिवस.. .. Is India really Republic... ? मुझे तो नहीं लगता..( क्यों कहना जरूरी नहीं समझती)..। आइए आप भी कुछ कहिये...

Thursday, January 25, 2007

पुकार.........


एक झीने पर्दे के उस पार,

मैने देखा.....

खुद को, अकेले तन्हा,

एक नदी के पास....

चुपचाप- खामोश,

देख रही थी मैं...

लहरों क आना,

साहिल के पत्थरों से टकराना..

और लौट पङना...।

मैं सुन रही थी,

उन अनसुनी आवाज़ों को...

जो वक्त के साथ,

खो गयी थी कहीं...

नीचे अकेली धरती,

उपर तन्हा-अनंत आकाश...

सन्नाटा फ़ैला था मेरे आस-पास,

ऐसे में.......

क्या फ़िर तुम्हें पुकारूं आज.....?

दोगे मेरा साथ......?

शीशे से बनी एक लङकी..



शीशे से बनी एक लङकी को देखा मैनें पत्थर के शहर में,


पलकें झपकाती देखती थी दुनिया को.....


शीशे की बनी प्यारी आंखें,झरने सी हंसी और आंसू मोती जैसे,


सवाल बिखरे थे चेहरे पर उसके...


पतझङ क्यों आता है-?.. मानो कली ने पुछा हो मौसम से जैसे,


दुनिया ऐसी क्यों है..?


वो पूछ बैठी मुझसे....... बिल्कुल वैसे,


मेरे दिल ने कहा-कैसे चली आई तुम ?


कांटों के नगर, फ़ूलों के गांव से....


बोलो ना क्यों है सबकुछ ऐसा- ?


फ़िर पूछा उसने मुझसे...


अभी नादान हो कैसे समझोगी दुनिया को?


हंसकर कहा मैनें....


नहीं बताओ मुझको, मचल पङी मेरा हाथ पकङकर,


बचना चाहा सवाल से और हाथ छुङाना चाहा मैनें...


पर मेरे मन को बांध लिया था उसने,


कैसे छोङोगी मुझको...


सवाल था उसके होठों पर,


मुस्कुरा कर पिघल गया मेरा पत्थर दिल भी...


जल गया अंधेरे में स्नेह का दीप,


अब वो साथ रहती है मेरे..


देखती है दुनिया को, पुछती है सवाल कई,


और ढूंढ्ती है जवाब मेरी खामोशी में........


Monday, January 22, 2007

वो बचपन के दिन....


कितने अच्छे थे वो कुछ दिन, जब प्यारा-प्यारा बचपन था,

और था निश्छल-निर्मल मन....

जब मुस्काते थे हर पल-छिन,

कितने अच्छे थे वो कुछ दिन.....


जब झूला था बांहों का, और गोद का था बिस्तर,

जब सुला देती थी लोरी की धुन...

कितने अच्छे थे वो कुछ दिन....


जब सुना करते थे कहानीयां, और सपनों में थी परियां,

जब नया खेल था हर नये दिन...

कितने अच्छे थे वो कुछ दिन....


अब ढूंढता है दिल, वो खेल-खिलौने वो साथी,

वो पल में रोना, पल में हंसना...

वो नन्हा-मुन्ना बचपन,

वो सोने चांदी की रातें, वो हीरे मोती से दिन...

सच कितने अच्छे थे वो कुछ दिन..........

Sunday, January 21, 2007

एक सवाल क्या है ज़िंदगी...?


रोज हर एक नये सूरज के साथ मेरे मन में उठता है हर रोज सिर्फ़ एक सवाल कि ज़िन्दगी क्या है... और रोज ढूंढती हूं ज़िंदगी को अपने आस-पास। सुबह उठकर रोजमर्रा के काम निपटाती सोचती हूं क्या ये ज़िंदगी है... फ़िर मन कहता है नहीं। फ़िर जब घर से निकलती हूं दफ़्तर जाने को.. आस-पास लोगों की भीड को... अलग-अलग लोग सब अपनी जल्दबाज़ी में व्यस्त.. अपनी मन्ज़िल पर सबको पहुंचना है ज़ल्द से ज़ल्द, क्या ये ज़िन्दगी है.. नहीं-नहीं ये तो बेशक नहीं है। इतने में मेरी बस आ जाती है और खिडकी कि पास वाली सीट खाली देख वहीं बैठती हूं मैं.. और फ़िर सोचने लगती हूं। बस सिग्नल पर रूक जाती है और मैं देखती हूं सडक के किनारे बैठे एक परिवार को .. तीन लोग हैं वो.. कागज़ इकट्ठे करती पत्नी और लकडी पर आरी चलाता पति.. और उनका २-३ साल का बच्चा... और उसके हाथ में कोई खिलौना नहीं बाप ने थमा रखी थी एक छोटी आरी, और उसे चलाता देख खुश थे दोनों.. लगा शायद यहां है ज़िंदगी.. पर कैसी विडंबना है ये.. मन भर आया। फ़िर देखती हूं अपने आस-पास .. एक सांवली छोटी बच्ची.. इतना मासूम चेहरा, कोमल... हाथ में एक कागज़ का पैकेट थामे हुये.. बार-बार उसमें झांक रही थी.. फ़िर अपनी मां के तरफ़ देखा.. कुछ पुछा प्यारी आंखों से.. फ़िर मुस्करा कर पैकेट से बाहर निकाली एक जलेबी.. हर बार जब वो एक कौर खाती थी .. जो संतोष उसके चेहरे पर आता था वो तो शयद मैने छ्प्पन भोग खाकर भी नहीं पाया था कभी.. उसे खत्म कर अपनी उंगलियां चाट ली उसने और फ़िर एक मासूम तॄप्त मुस्कुराहट.. मैं भी मुस्कुरा पङी भीतर तक.. ज़िंदगी ये भी है.. सारी वितॄष्णा कहीं भाग गयी थी। तब तक दफ़्तर आ गया और मैं उतरी अपने स्टोपेज पर रोज की तरह... उफ़! सङक के बीच गिरा पङा था एक इन्सान.. शायद बेहोश था.. आस-पास से गुजर रही थी गाङियां और लोग भी पर कोई नहीं रूका... कौन झमेले में फ़ंसे.. यही सबका विचार था .. मैन भी उसे देखते हुये, और कुछ करने कि सोचते हुये गुजर गई , पर किया कुछ भी नहीं.. पूरा दिन मेरी आत्मा कचोटती रही मुझे.. खाना भी नहीं खाया गया, क्या यही है मेरे आदर्श.. क्या ऐसे जीनी है ज़िंदगी.. बस घर और दफ़्तर... क्या यही चाहा था अपने आप से... नहीं ऐसा तो नहीं चाहा था।

जब पार्टियों मे जाती हूं और देखती हूं नकली मुस्कान ओढे, लिपे-पुते चेहरे.. जैसे सारी दुनिया में सब खुश हैं ... पर ऐसा कुछ नहीं है.. सब अपनी भङास निकाल रहे होते हैं... और हाथों मे ग्लास या खाने की प्लेट और चर्चाएं पूरी दूनिया की.. गुस्सा इतना मानो सारा बोझ इन्हीं के सरों पर हो.. दिखावा .. क्या ये है ज़िंदगी... और रोज ऐसे ही बीत जाता है दिन.. मैं घर लौटती हूं.. वही सब कूछ देखते हुये सोचते हुये.. आकर फ़िर वही रोज के काम... फ़िर लिखती हूं कोई कविता .. कोशिश करती हूं ज़िंदगी को अर्थ देने का... और सो जाती हूं सोचते हुये .. क्या है ज़िन्दगी फ़िर कल जवाब ढूंढ्ने के लिये........

Saturday, January 20, 2007

मेरा क्या है.....


क्या करुं मैं जो इसे चाहत है किसी की,

जो ये चाहता है तुम्हें ही...

ये तो बस मेरा दिल है और दिल का क्या है


क्या करूं मैं जो ये बसे हैं आंखों में,

जो ये बस तुम्हारे हैं..

ये तो बस मेरे ख्वाब हैं मेरे और ख्वाबों का क्या है


क्या करुं मैं जो मन महसूस करता है इन्हें,

जो इन में बस तुम समाये हो..

ये तो बस एह्सास है मेरे और एह्सासों का क्या है


क्या करुं मैं जो इन्हें इन्त्ज़ार है किसी का,

जो ये तकती है तुम्हारी राहों को..

ये तो बस आंखें हैं मेरी और आंखों का क्या है


क्या करोगे तुम जो भूल चूका है कोई खुद को,

जो उसे बस तुम याद हो..

वो तो बस मैं हूं और मेरा क्या है....
" खामोश चाहत में जो असर होता...
ये अल्फ़ाज़ बोल पडते..
सारी इबारत मिट जाती..
ये पन्ने रो पडते.."



Friday, January 19, 2007

MOMENTS OF LIFE....


LIFE IS NOTHING BUT STORY OF MOMENTS.... MOMENTS WE LIVED TOGETHER... MOMENTS WE SPENT APART... MOMENTS OF LOVE... MOENTS OF PAIN... MOMENTS WHEN WE LAUGHED MOMENTS WHEN WE CRIED...


ONE OF MY MOMENT IS THERE LYING WITH YOU ..AND ONE OF YOURS MOMENTS IS HERE KEPT WITH ME...


LETS COME TOGETHER AND MINGLE BOTH THE MOMENT IN EACH OTHER .. TO MAKE OUR LIVES ALIVE AGAIN... AND TO NAME IT OUR LIFE...

तन्हाई ही तन्हाई है....


सूना-सूना सबकुछ लगता, गहरी - गहरी एक उदासी छाई है.....


कहीं खो गई हंसी लबों की , रोका कितना फ़िर भी आंखें भर आई हैं...


बोझल- बोझल धडकन दिल की, सांसे मानो खुद से ही घबराई हैं...


अन्धेरे में डूबा घर है सारा, शायद शाम गमों की घिर आयी है...


कहो आवाज़ दूं कहां किसी को, यहां तो बस तन्हाई ही तन्हाई है...


मुझे छोड कर चल दी है जो, वो मेरी ही परछाईं है...


सन्नाटे में भी जो गीत लिखे, तो लगा याद किसी की आई है....


बहूत संभाल कर थामा था सब, फ़िर भी सूनी हथेली पर चंद लकीरें ही पाई हैं......






"हर पल हर सांस अजनबी है, तुम बिन सब अधूरा ....

सब तरफ़ कमी सी है.... "

Thursday, January 18, 2007

BAAWARI PIYA MAIN TERI......


बावरी हुई पिया मैं तेरी... निर्मोही,निष्ठुर बालम काहे तोसे मोह लगाया.. काहे अपना सुख चैन गंवाया.. अब कासे करुं सिकायत मैं तोहरी.. बावरी हुई पिया मैं तोहरी.. तुम जाके बैठे परदेस बलम जी.. छोड़ गये मुझ जोगन को पिया जी.. तुम बिन मोहे कुछ नहीं भावे .. खारी लागे निगोड़ी कोयल की बोली.. जो लावे तोरे आने का संदेस.. मिट्ठी लागी मोहे उस काले कागे की बानी.. बावरी हुई पिया मैं तेरी.. काहे तोसे मैनें नैना जोड़े .. काहे सारे बन्धन छोड़े .. तेरे बिन लागे ढोला सिन्गार ये आधूरा.. बिन थारे लागे फूल भी बिछूआ.. तेरी प्रीत के आगे नहीं सुहावे धानी चुनरी.. हां हुई बावररी पिया मैं तेरी.. जाने मोहे कैसे ये रोग लगा, कैसे बनी ये कहानी.. लोग कहे मैं हुई दिवानी.. भोर भये से सांझ ढले तक मैं बैठी रहूं अटारी पर .. और बात जोहूं तोहरी.. बलम जी तुम ले ना आना सौतन मेरी.. हुई बावरी पिया मैं तेरी.. तोरे बिना लागे मोहे फीकी बेस्वादी ये दुनिया.. जैसे काजल बहे भई सूनी मोरी अंखियां .. पनघट , पीपल , झूले सब भूली.. ईमली , अमियां, बेर भूली सारी सखियां.. मेरे मन को मिट्ठी लागे बस एक बात तेरी.. हुई बावरी पिया मैं तेरी.. मेरी गोरी कंचन काया भी अब मुरझाई है.. सब कहे तू सांवरी हो आई है.. कैसे कहूं उनसे मोरी प्रीत तोहरे रंग में मिलाई है.. मेरे सांवरे सजन जी अब तो सूधि लो मोरी.. हुई बावरी पिया मैं तोहरी........

Wednesday, January 17, 2007

ek baar chale aao....


आओ थाम लो मेरा हाथ की मुझे जरूरत है एक साथी की...
आओ बैठो मेरे पास की रोने को जरुरत है मुझे एक कंधे की...
आओ कुछ कहो मुझसे कुछ सुनो मेरी, घड़ियां बहुत गुज़र चुकी ख़ामोशी क़ी..
आओ और होने दो खुशी की बारिश, दिल पर कबसे छाई है बदली ग़मों की..
आओ और बन जाओ ज़वाब मेरे की अब हो हद गई दुनिया के सवालों की ..
आओ और भर दो उज़ाले की उम्र हो गई बहुत अन्धेरों की....
आओ और सम्भाल लो मुझे की ये राह है फिसलने की....
आओ और मिटा दो हर फासले की दुरियां बहुत बढ गई है दिलों की ...
आओ और चलो मेरे साथ की ज़रूरत है मुझे हमसफ़र की ...
आओ और कर जाओ मुझे संग अपने की अब ज़रूरत है मुझे ज़िंदगी की....
आओ चाहे आके फिर चले जाना...........
आओ चाहे मिल के फिर बिछड़ जाना....
क्योंकि शायद ज़िंदगी में कमी होने लगी है आंसूओ की , यादों की......



"पहले तो चला करते थे वो साथ, हर पल साये की तरह ..
पर जबसे दिल ने तमन्ना कि है उन्हें पाने की,एक ज़माना हुआ उन्हें देखे.."

Tuesday, January 16, 2007

तुमने तो मुझे जाना ही नहीं.........


तुमने मुझे बेवफ़ा का नाम तो दिया,.. पर वफ़ाओं का मतलब तो तुमने कभी जाना ही नहीं
अपनी चाहतों का तुम्हें हमेशा ख्याल था.. पर मेरी ख्वाहिशों को तुमने पहचाना ही नहीं,
तुमने मुझसे शिकवे तो बहुत किये.. पर मेरी शिकायतों को कभी सुना ही नहीं,
तुम मेरी नासमझी की बातें तो करते रहे.. पर तुमने मुझे तो कभी समझा ही नहीं,
मेरी भूलों का एह्सास तो तुम्हें सदा रहा.. पर अपनी गलतियों को तुमने कभी माना नहीं,
फिर ये रिश्ता तो टूटना ही था ना.. क्योंकि विश्वास का मतलब तो तुमने कभी जाना ही नहीं..



"मुझे पत्थर कहने से पहले एक बार छू तो लिया होता, पिघल कर वहीं बिखर जाता ये मोम क़ा टुकड़ा ..एक बार ईश्क की गर्मी का एह्सास दिया तो होता "

Monday, January 15, 2007

क्यों जाये सीता ही हरबार वनवास


राम क्यों जाये सीता .. हर बार वनवास तुम्हारे साथ? क्यों दे हर बार वो एक और अग्नि परिक्षा.. क्यों तुम ने नहीं दी राम तुमने भी एक अग्नि परिक्षा.. तुम भी तो रहे थे एकाकी वन विचरण करते.. फिर तुम कैसे नहीं आये परिक्षा के दायरे में..? तुमने तो कुछ भी नहीं खोया.. सब पाया वापस लौटे जब अयोध्या.. पर क्या पाया जनक नंदिनी ने दे कर तुम्हारा साथ.. एक गर्भ और उस पर एक और वनवास.. कैसे दे पाये वनवास तुम राजा राम.. किसने दिया तुम्हें अधिकार... और जब दिया तो क्यों नहीं तुम भी चल दिये उसके साथ .. क्यों नहीं निभाया तुमने पतिव्रत धर्म .. कैसे कहलाये तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम... क्यों नहीं जीया तुमने एक और वनवास... कैसे समाने दिया तुमने वैदेही को धरा में.. कैसे देख पाये तुम , कैसे जी पाये तुम... क्यों तुम्हें तुम्हारी आत्मा ने नहीं धिक्कारा.. कहो ना जानकी वल्लभ .. कहो ना रघुपति राघव राजा राम ... क्यॉ जाये सिर्फ सीता ही हर बार वनवास... हर बार समये वो हि धरती में .. और दे वो ही अग्नि परिक्षा..

Sunday, January 14, 2007

उतरा है चांद मेरे आंगन में..



धुंध से भरे कुहासे से घिरे..सर्द हो चुके मेरे अह्सासों को फिर से जगाने.. ठन्डी, स्याह, सन्नाटे के बादलों से घिरी रात को फिर से जगमगाने.. उतरा हॅ चांद मेरे आंगन में.......जो तुम कहो तो थाम लूं, एक कोना चांद का मैं भी..और छुपा लूं अपनी हथेली में....तुम कहो तो आज सृंगार करुं चांदनी का..पहन लूं सितारों के गहने, सजा लूं चांद का टीका मांग में.. देखो चांद उतरा हॅ अपने आंगन में..आओ एक बार इस धवल चांदनी में.. इस सीले अंबर के नीचे..संग हो जायें हम..एक जान,एक जिस्म...आओ मिटा दूं सारी दूरियां.. भूला दुं ग़म की परछाईयां.. समेट लूं तुम्हें अपने आंचल में. हां, चांद उतरा है मेरे आंगन मे..एक बार तो छू लूं चांदी के इस गोले को.. समा लूं इसकी ठंडक अपने भीतर.. महसूस करूं इसकी रोशनी अपनी रूह तक..एक बार सूनूं इसकी खामोशी को.. और लिखूं कविता इसके सौन्दर्य पर.. बस अब कुछ देर बाकी है 'सहर' होने में... हां.. आज चांद उगा है मेरे आंगन में....








"बहुत रातें गुजारी हमने अमावस को सिरहाने रखकर,
चलो कुछ देर सोया जाये आफताब की गोद में.."

हसरतें और भी हॅं.......... (one more from diary)


मंज़िलें कम सही.. पर रास्ते और भी हॅं...सारे ग़ुल, ग़ुलाब ना सही .. पर महकते गुलिस्तां और भी हॅं..बनाया किसी और ने ताज़महल ना सही..पर मुमताज़ें हमने देखीं और भी हॅं..चांद से रोशन ना सही.. पर चमकते सितारे यहां और भी हॅं..तुम सी खुबसूरत ना सही.. पर प्यार भरी निग़ाहें यहां और भी हॅं..मिलता नहीं प्यार ना सही.. पर दिवाने यहां और भी हॅं..मुकम्मल ग़ज़ल हमसे बन ना सकी, ना सही..पर हमने गीत अधुरे लिखें और भी हॅं..पूरी हुई चाहतें सारी ना सही..पर हसरतें हमारी और भी हॅं..मिल ना सके तुम मुझे ना सही..पर ज़ीनें को यहां राहतें और भी हॅं..




"LET THE SPIRIT NEVER DIE.."

Friday, January 12, 2007

YOU ARE MY LIFE.. (one more oldie..first in eng..)


IN THIS WORLD... I WAS ALONE AND SAD,

BUT YOU TOLD ME TO LAUGH AND SMILE,

SO .. YOU ARE THE JOY OF MY LIFE..

IN MY LIFE EVERYTHING WAS DARK,

BUT YOU HAVE GIVEN ME THE COLOUR,

SO.. YOU ARE THE RAINBOW OF MY LIFE..

IN MY LIFE THERE WAS A DEEP SILENCE,

BUT YOU HAVE BECAME MY VOICE,

SO.. YOU ARE THE SONG OF MY LIFE...

I WAS DEAD... LIKE A STATUE,

BUT YOUR LOVE MADE ME ALIVE,

SO YOU ARE THE SOUL OF MY LIFE.......

Thursday, January 11, 2007

tumhe kisi intzaar kyon hai..? (my first poetry)


मेरे दोस्त, खामोश आंखें भी बहुत कुछ कह जाती हैं,तो फिर लबों के कहने की जरुरत क्यों है?मन की रागिनी ही सितार बजा जाती है,तो बाहर सितार थिरकने का इंतजार क्यों है?होठों का मौन ही कह चुका है सबकुछ,तो उन्हें शब्द देने को तू बेकरार क्यों है?मेरे दोस्त,जब तेरा मेरा प्यार ही काफी है,तो तुम्हें किसी और के कहने का इंतज़ार क्यों है?जब तेरे दिल ने ही कर रखी है रोशनी,तो तुम्हें चांद निकलने का इंतजार क्यों है?जब पास रह के भी फासले मिट ना सके दिल के,तब तुम्हें उसके दूर जाकर पुकारने की आस क्यों है?मेरे दोस्त, जब तेरे दिल का आशियां ही काफ़ी है मेरे लिये,तब मुझे घर बसाने की ज़रुरत ही क्य़ों है?मेरे साथ हमदम दोस्त तुम हो,तो मुझे किसी और की दरकार ही क्यों है?

Tuesday, January 9, 2007

kuchh kahana hai tumse...

चन्द अल्फाज़ तुम्हारे लिये...
"चले तो आये हो तुम मेरी दुनिया में पर जानॅ क्या सोचकर.. क्या उम्मीद, कैसी कशिश .. जो तुम बढे चले आते हो.. इस पथरीली ज़मीन पर... क्या पाओगे तुम .. एक नाम तक नहीं.. कोई पह्चान भी नहीं.. हां चंद लम्हे साथ के एह्सास के.. और दर्द जो कभी बहेगा नहीं.. क्यॉक़ि मैं वक्त का वो ठहरा हुआ बहाव हुं.. जिसे ख्वाहिश है डूब जाने की.. और फिर ईन पत्थ्ररॉ के बीच सड़्ने से तो बेहतर हॅ कि खो जाऊं डूबकर.. पर तुम क्यॉ ठहरना चाहते हो.. प्यास बुझा सकुं किसी कि मैं वो नदी नहीं.. जो तुम्हॅ सुकून दे वो नींद भी नहीं.. जो तुम कह सको वो ग़ज़ल भी नहीं.. मै तो एक ख्वाब हुं जिसे पलक़ॅ छुपा ना सकीं .. टूटे हुये आईने में ना तलाश करो खुद क़ी.. बेहतर है जिंदग़ी की मॅ तलाश हो एक शगुन क़ी.. दोस्त, राख़ से आग नहीं जलाया करते.. आंखें भर आयॅगी जो जरा भी हवा चली.."

Sunday, January 7, 2007

Dew drops of love........


holding a beautiful flower in her hand she stood by the door... it was an early beautiful morning... there were little shiny dew drops on the flower... so were there in her big clear blue eyes... memories of night she spent with him filled her heart... brought colour to her cheeks... the adoration, admiration they did, felt for each other... their world filled with love, trust it was for two of them and for no onelse... just she was there with him in his strong n sweet arms.. n he looking at her n making her more beautiful with every moment of love..... his fingers brushing her hair n his lips saying"u dont know how lucky n blessed i feel to have u in my life, you are my soul", " n i am deep within u" she replied... she slept sound feeling protected n cared.. she always wanted that to be loved , cared n protected n now he was there with her ... like a sky to cover her.. he is hers only, how content she felt... when she woke up he was ready to leave.. she looked at him with a question in her eyes.. n he explained how important it was for him to go n how difficult too to leave her alone.... '' i understand..." she told n smiled, her softfingers touching his hard cheek..he gave her a warm hug n her lips felt that satin again... "bye.. will see you soon" he said n waived his hand and left her with a promise to come back again....

Saturday, January 6, 2007

chaahati hun jeena astya ko..


चाहती हुं जीना एक बार असत्य को.. मानना चाहती हुं उसे जो हुं उसे जो है नहीं... देखना चाहती हुं उसे जो प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष है..एक बार जाना चाहती हुं उस पार जहां विश्वास कर सकुं उन कल्पनाओं का जो कभी पूरी होती नहीं...तुम मुझे वहीं मिलो उस पार और सफर करें हम ख्वाबों का..सुनना चाहती हुं तुमसे वो शब्द जो हकीकत हॅ नहीं.. फिर भी विश्वास करना चाहटी हुं तुम्हारा.. एक बार जीना चाहती हुं असत्य कॉ.. गाना चाहती हुं उन गीतॉ को जो किसी ने लिखे थे कभी दिल के तारों पर गाने के लिये .. देना चाहती हुं उन्हॅ सुर हृदय के.. सुर जो खो दिये थे कभी .. ढ़ुंढ्ना चाहती हुं उन्हॅ तुम्हारे संग... एक बार जीना चाहती हुं असत्य को.. छुना चाहती हुं उस स्पर्श को जिसने कभी छुआ ही नहीं ... मह्सूस करना चाहती हुं उस कोमल अहसास को अपने बालॉ मॅ, अपने गालों पर..एक बार जीना चाहती हुं असत्य को... सोना चाहती उस नींद में जो कभ इन आंखॉ मॅ उतरी ही नहीं.. तुम्हारी गोद मॅ अपनी पलकॅ मूंद कर खो जाना चाहती हुं उस चिरनिद्रा मॅ... और चाहती हुं वो रात जो कभी ढले नहीं... बस एक बार ऐसा हो... हां जीना चाहती हुं एक बार असत्य को..