Wednesday, February 28, 2007

मैंने भी दे ही दिये जवाब ....



जब ये देखा की मुझे एक नहीं तीन-तीन लोगों ने नामित किया है तो एक बार तो विश्वास नहीं हुआ... मुझे नारद से जुङे बस एक महीना और कुछ दिन हुये हैं.. पता ही नहीं चला कब आत्मीयता हो गयी सबसे और मैं भी इस परिवार कि एक सदस्य बन गयी.. अब बिना कोई लंबी चौङी भूमिका बांधे मैं सवालों के जवाब दे देती हूं.. सबकॊ बोर नहीं करना चाहती.. ऐसे भी मेरी कविताओं से सबको शिकायत है कि बहुत दुखी रहती हूं.. अब गद्य में भी बोर कर दिया तो सब भाग जायेंगे..

सबसे पहले जीतू जी के सवाल...
*क्या चिट्ठाकारी ने आपके जीवन/व्यक्तित्व को प्रभावित किया है?
- हां.. बहुत हद तक एक तो लिखने का मुझे बहुत शौक है.. चिट्ठाकारी से शौक तो पूरा होता ही है .. मन को भी बहुत शांति मिलती है अपनी बात कह्कर..

*आपने कितने लोगों को चिट्ठाकारी के लिये प्रेरित किया है?
- सच कहूं तो एक भी नहीं.. पर हां पढने के लिये फिर भी कुछ को प्रेरित किया है .. और वो पढ भी रहे हैं.. हो सकता है कल को लिखने भी लगें..

*आपके मनपसंद चिट्ठाकार कौन है और क्यों?
- ये बताना मुश्किल है मेरे लिये .. एक तो मुझे ज्यादा दिन नहीं हुये इससे जुङे हुये... और मैं जिन्हें भी पढती हूं सभी पसंद आते हैं.. सबका अपना अंदाज़ है.. कोई बहुत सरल सहज है, तो कोई दर्शन में उल्झा है.. कोई राजनीति से परेशान है.. तो कोई खुद से व्यथित.. कोई हंसाता है .. कोई सोचने को मजबूर करता है.. कोई रूला भी देता है.. सबके अपने रंग हैं.. और मुझे सारे रंग पसंद हैं..

*आपको चिट्ठाकरी करते समय कैसा प्रोत्साहन और सहयोग मिला था?
- ये उत्तर थोङा लंबा होगा.. मैंने सबसे पहले याहू ३६० पर लिखना शुरू किया था.. इंग्लिश में ( अब भी लिखती हूं).. हिन्दी रचनायें डायरी तक सीमित थी.. वैसे काफ़ी सालों से लिख रही हूं.. फ़िर एक दिन दिव्याभ(
www.divine-india.blogspot.com) को पढा ये मेरे दोस्त के बङे भाई हैं और मेरे दोस्त भी हैं.. इनकी मदद से पहले blog बनाया और हिंदी लिखना सीखा.. पर कभी नहीं सोचा था की किसी bloggergroup से जुङूंगी.. पर दिव्याभ जी ने मेरी रच्नायें पढीं और प्रेरित किया की इन्हें लोगों तक पहुंचाऊं.. तब इनकी मदद से नारद से जुङी .. यहां जीतू जी ने बहुत मदद की.. काफ़ी सुझाव दिये.. आज मेर blog जैसा भी है इन्हीं दोनों की वजह से..

*आप किन विषय पर लिखना पसंद/झिझकते हैं?
- जैसा की मेरी रचनाओं मे दिखता है की भावनात्मक कवितायें ज्यादा लिखती हूं.. पर किसी भी विषय पर लिख सकती हूं बिना झिझके..


अब सागर जी के सवाल...

*आपकी दो प्रिय पुस्तकें और दो प्रिय चलचित्र कौन सी हैं?
- पढने का बहुत शौक है पर भारी भरकम किताबें ज्यादा नहीं पढ पाई हूं.. वैसे शिव खेङा की "जीत आपकी" और GREY JOHN की 'men are from mars women are from venus pasand hai' वैसे comics , कहानियां पढने का बहुत शौक है..
मेरे दो प्रिय चलचित्र सिर्फ़ दो कहना मुश्किल है.. दो romantic फ़िल्में बोलूं तो कुछ-कुछ होता है और दिलवाले दुल्हनियां.... दो Patriotic फ़िल्में कहूं तो .. नायक, रंग दे बसंती और off beat cinema ज्यादा पसंद है जैसे Page 3, फ़िलहाल, अस्तित्व, ईंग्लिश फ़िल्मों में titanic, baby's day out, Mummy पसंद है.. HORROR movies ka बहुत शौक है पर कोई बहुत पसंद नहीं आई आज तक...

*इनमें से आप क्या अधिक पसंद करते हैं, पहले और दूसरे नंबर पर चुनें - चिट्ठा लिखना, चिट्ठा पढना, या टिप्प्णी करना या टिप्पणी पढना ? (कोई तर्क, कारण हो तो बेहतर)
- सबसे पहले चिट्ठा लिखना ( अरे उसी के लिये तो blog बनाया है), फ़िर चिट्ठा पढना ( क्योंकि पढने का शौक है), फ़िर टिप्प्णी पढना और फ़िर टिप्पणी लिखना ( अब ये आखिर में क्यूं सब समझते होंगे)..

*आपकी अपने चिट्ठे की और अन्य चिट्ठाकार कि लिखी हुई पसंदीदा पोस्ट कौन-कौन सी है?
-
'चाहती हूं जीना असत्य को' मेरी स्वरचित पसंदीदा पोस्ट है, और अन्य चिट्ठकारों की भी मैने कई पोस्ट पढी हैं और जैसा की कहा मुझे सब पसंद है .. पर हां एक पोस्ट है जो दिल को इस कदर छू गई की मैं रो पङी थी.. आज तक नहीं भूला पाई हूं.. 'पुत्र क खत पिता के नाम..!!!' (www.divine-india.blogspot.com)..

*आप किस तरह के चिटठे पढना पसंद करते हैं?
- लगभग सभी तरह के चिट्ठे पढती हूं .. बस तकनीकी छोङ कर...
*आप किसी साथी चिट्ठाकार से प्रत्यक्ष मिलना चाह्ते हैं? तो वो कौन हैं और कौन है और क्यॊं?
- वही सब की तरह मैं भी यही कहूंगी की सबसे मिलना चाहूंगी क्यूंकि मुझे सारे रंग (चिट्ठे) पसंद हैं?

# बाकी एक सवाल का जवाब उपर जीतू जी के सवालों में है.. बाकी दो छोङ रही हूं...
अब पंकज जी के सवाल...
*हिन्दी चिट्ठाकारी ही क्यों?
- क्योंकि हिंदी मातृभाषा है और प्रिय भी.. फ़िर बोलती और सोचती भी हिंदी में ही हूं.. तो लिखती भी हिंदी में ही हूं..

*जीवन में कब सबसे अधिक खुश हुये?
- खुश तो हमेशा रहती हूं.. वैसे प्यार की अनुभूति सबसे ज्यादा खुशी देती है.. रूप चाहे जो भी हो.. स्नेह,प्रेम,ममत्व, वात्सल्य.. प्यार मिलता है बहुत खुशी होती है..

*अगला जन्म मिले तो क्या नहीं बनना चाहोगे?
- क्या नहीं बनना चाहूंगी.. ये मुश्किल सवाल है.. ये पूछते क्या बनना चाहुंगी.. खैर बस उल्लू या गधा नहीं.. क्यूं ? .. अरे नाम सुनते ही लोग समझ जायेंगे उपर वाला फ़्लोर खाली है.. ऐसे कम से कम भ्रम तो है.. :)

*कौन सा चिट्ठा सबसे अधिक पसंद है और क्यों?
- जवाब उपर पढ लें..

*हिन्दी चिट्ठाजगत के प्रचार-प्रसार में क्या योगदान दे सकते हैं?
- कोशिश करूंगी की और चिट्ठाकारों को प्रेरित करूं .. और पढने को भी.. और हां boring post ना करूं..

आखिर हो गये सवाल पूरे.. इतने जवाब तो कभी किसी परीक्षा में भी एक साथ नहीं दिये.. उम्मीद है उत्तीर्ण ही जाऊंगी.. पूर्णांक ना सही उत्तीर्णांक तो मिल जायें... :)

अब आया सही मौका लोगों से सवाल करने का.. मेरे पांच साथी चिट्ठाकार जिनसे मैं सवाल पूछूंगी वो हैं..

*दिव्याभ जी
*गिरीन्द्रनाथ झा जी
*उपस्थित जी
*बासूती जी
*गुरनाम जी
मेरे पांच सवाल हैं..

*लेखन का आपके जीवन में क्या मह्त्त्व है?
*अपनी स्वरचित पसंदीदा रचना कौन सी है?
*अपने जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के बारे में कुछ बताइये।
*अपनी एक बुराई और एक अच्छाई कहिये?
*मूड खराब होने पर कौन सा गीत सुनते हैं?


























Saturday, February 24, 2007

हां कुछ हुआ ऐसा कि.. कुछ हुआ ही नहीं..


चुपचाप, बेआवाज़..

ख्वाब सारे टूट कर बिखर गये...

टूकङों की चुभन से दर्द हुआ ऐसा..

मानो दर्द हुआ ही नहीं..

हां कुछ हुआ ऐसा कि.. कुछ हुआ ही नहीं..


हौले-हौले धीरे से..

वो कुछ कह कर गया..

हवा की सरसराहट में..

मैंने कुछ सुना ऐसा..

मानो कुछ सुना ही नहीं...

हां कुछ हुआ ऐसा कि.. कुछ हुआ ही नहीं..


अचानक यूं ही, चुप सी..

सांसें सहम गईं..

सहमी धङकन ने कुछ कहा ऐसा..

मानो कुछ कहा ही नहीं..

हां कुछ कहा ऐसा कि.. कुछ हुआ ही नहीं..


अजनबी, नामालूम सा..

दिल से गुजर गया कोई..

किसी को मन ने चाहा भी ऐसा..

मानो कुछ चाहा ही नहीं..

हां कुछ हुआ ऐसा कि कुछ हुआ ही नही..



'' दिल रो दिया पर आंख रो ना सकी..

दर्द यूं ही होता रहा दुनिया समझ ना सकी"

Tuesday, February 20, 2007

तू मुझको पगली सी लगती है..


जब भी मिलता हूं तुझसे..

तू अलग, अलबेली..

मुझको बिल्कुल पगली सी लगती है..


कभी उलझती.. कभी सुलझती..

कभी अनगढ, अबूझ पहेली सी..

अजनबी..पर बिल्कुल अपनी सी लगती है..


कभी हंसती है खिल-खिल कर..

कभी रो देती सीने से लगकर..

तू बारिश पहली सी लगती है...


कभी रूठती खुद ही लङकर..

फिर मान भी जाती हंसकर..

तू रंग बदलती तितली सी लगती है..


कभी दर्द जहां का सहती..

कभी ख्वाबों में खोई रहती..

जाने कब क्या-क्या करती..

हर बार नयी-नयी सी लगती है..


कभी शर्माती है दुल्हन सी..

कभी हरकतें बच्चों सी..

जाने कैसे समझाऊँ तुझको..

तू निर्मल नदी सी लगती है...


तु मुझको बिल्कुल पगली सी लगती है....

Monday, February 19, 2007

एक सत्य खुद पर...


सोचती हूं क्या हमेशा नायिका बन लिखती रहूंगी गीत प्रेम के, विरह के..
या फ़िर हमेशा प्रश्न करती रहूंगी किसी अन्य से..
क्या हमेशा उलझी रहेंगी मेरी रचनायें कहीं और 'स्व' से दूर..
क्यूं नहीं मैं कहती कुछ खुद में झांक, अपने सत्य पर...

"आज तक सिर्फ़ अपनी व्यथा का चित्रण करती रही,
सवाल करती रही अपनी वेदनाओं पर,
पर क्यूं नहीं कभी उन हॄदयों की पीङा को देखा,
जो मैंने दी थी, क्यूं नहीं उन आंसूओं को समझा,
जिनका कारण मैं थी..
कैसे भूली उस दर्द को जो सहे गये मेरे लिये...
ये कैसी संकुचित सोच मेरी जो 'स्व' पर अटकी रही"

"सवाल बहुत किये मैनें औरों से उनकी गलतियों पर,
बातें बहुत की मैंने अपने उसूलों की,
माफ़ नहीं कर पाई कभी किसी भूल को,
पर क्या स्वयं की गलतियों को देखा मैंने..
क्यूं स्वयं को क्षमा कर दिया हर बार...
ये कैसा 'न्याय' था मेरे आदर्शों का.."

"अपने हर विचार को सही, अपने हर लक्ष्य को निश्चय बना,
आगे बढती गई.. जो चाहा उसे पाना है,
हर बार ये ज़िद करती रही,
'आधुनिक स्वतंत्र विचार' ले कर सबसे लङती रही,
और गर्वान्वित भी हुई अपनी हर विजय पर..
पर कैसे आहत हुये दिलों के घाव देख ना पाई.."


"अपने नारी मन की व्यथा को खूब रचा हर बार,
अपनी व्याकुलता सदा व्यक्त करती रही,
अपने आहत मन की पुकार को हर बार सुनाया,
पर उस पुरुष मन को पहचान ना पाई,
जो आहत हुआ कभी मेरी निष्ठुरता से...
कैसे उस मौन, स्तब्ध नायक की पीङा समझ ना पाई.."


"जाने जीवन पथ पर कहां से कहां चली आयी,
हर सुख में एक और सुख की आस,
हर आकंक्षा में एक नयी अभिलाषा,
बस पाने और पाने की चाह में खोई रही,
ये कैसी लालसा मेरे मन की...
क्यूं मैं कभी कुछ त्याग ना पाई..."


"हा ! आज धिक्कारती है मुझे आत्मा मेरी,
ये कैसी स्वार्थ सिद्धी में उलझी रही,
आज मूक हूं, स्तब्ध हूं अपने सामने खङे..
इस सत्य के सवालों पर..
इन अंधेरे गलियारों में भटकी मेरी सोच,
त्राण मांगती है प्रकाश का.."


"पर अब शायद निशा होने को है..
ये अंधकार आगे बढता मुझे ग्रसने को है.."

Sunday, February 18, 2007

ऐसा क्यूं होता है...


दिल यूं ही धङकता है..

हौले-हौले कुछ कहता है..

जब सुनती हूं सरगम इसकी..

तुम आस-पास हो..

ऐसा मुझको लगता है..

तुम ही बोलो,

ऐसा क्यूं होता है...?


मन भी कुछ कहता है..

पंख लगा के ख्वाबों के..

ये दिल की वादी में..

उङ जाता है..

उन सपनों की ताबीर..

तुम हो ये कहता है..

कुछ कहो ना ..

ऐसा क्यूं होता है..?



जब भी तन्हा होती हूं..

दिल के खाली पन्ने पर..

रंग यादों के मैं भरती हूं..

बन जाती है...

तस्वीर तुम्हारी ही..

मैं क्या जानूं...

ऐसा क्यूं होता है..?


Saturday, February 17, 2007

बहुत दर्द होता है माँ..!


धरा की नम मिट्टी में दबे बीज कि तरह...
जिससे अभी अंकुर फूटा हो, बीज-पत्र लेकर..
मानो मासूम कली, जो अभी खिली भी ना हो..
जैसे सीप में पङी बूंद, जो बनेगी मोती एक दिन..
उसी तरह सुरक्षित नम कमल सी कोख में..
मैंने स्थान पाया.. शुरुआत थी ये मेरे जीवन की..
अभी कोई शक्ल कोई आकार मैंने लिये नहीं..
अभी वो रचयिता व्यसत था मुझे रूप देने में..
बस अभी हृदय ने धङकना शुरु किया था..

आप दोनों भी बहुत खुश थे.. मेरे जन्मदाता..
आपका प्रेम अब जीवंत रूप जो लेने वाला था..
मेरे आने की कई कल्पनायें संजोने लगे आप..
मेरे नाम, मेरे रूप से लेकर मेरे भविष्य तक की..
सारी योजनायें गढी जाने लगी..
रोज एक नये परिवर्तन के साथ...
ये सब सुन मेरा कोमल मन भी सपने बुनने लगा..
एक नयी दुनिया के, अपने जीवन के, आपके ममत्व के..
जाने कैसा होगा सब-कुछ.. रोज नई कल्पना मन में होती..
ऐसे ही बीत गये कुछ दिन, खुशी के पलक-पावङों पर..
फ़िर एक दिन कहीं गये आप दोनो.. संग मुझे लेकर..
वहां अजीब सी गंध थी और सफ़ेद कोट पहने आदमी..
उसे डॉक्टर कहते हैं ये जाना मैंने..
उसने कुछ यंत्रों से जाने क्या-क्या देखा..
और कुछ बताया आपको..मेरे जन्मदाता..
फ़िर एक सन्नाटा सा छा गया...
मुझ तक आती स्नेह की तरंगें रुक गयीं..
जो महसूस हो रहा था.. वो अवसाद था..
मेरा कोमल मन भयभीत हो गया..
दम घुट रहा था मेरा.. हृदय ने पुकारा..
माँ!..माँ!.. डर लग रहा है...
अचानक मेरी कोमल अविकसित देह में..
कुछ चुभने लगा.. बहुत छ्टपटाई मेरी देह..
पर उसे विदीर्ण किया जा रहा था..
रुक गये हाथ मुझे स्वरूप देते रचयिता के..
ये तो शायद उसने भी नहीं सोचा था..
रक्त की धारा बह निकली..
और मैं केवल एक मांस का छिन्न-भिन्न टुकङा..
और हृदय से बस निकली केवल एक चीत्कार.....
माँ!...माँ!.. बहुत दर्द होता है माँ.. बहुत दर्द..
और फ़िर शाँति.. शायद यही थी मेरी नियति..

जानना चाहेंगे मेरा कसूर क्या था..
मैं एक लङकी थी..
मेरा लिंग निर्धारण करवाया गया..
ताकि मेरा निश्चित हो सके मेरा जन्म..
और तय किया गया मेरा अंत..
पर क्या ये सचमुच मेरा अपराध था....???????

Friday, February 16, 2007

रात अकेली रोती रही......


दिन तो उदास था ही...
शाम भी आई चुपके-चुपके,
आंख चुराये हुये..
और रात अकेली चुपचाप रोती रही..
गर्म आंसू गिरते रहे..
तकिये को भिगोते हुये..
और भर आई धुंधलाई आंखें,
कोहरा और बढाती रहीं..
रात अकेली चुपचाप रोती रही..
एक सन्नाटा फ़ैला रहा आस-पास,
खमोशी की चादर ओढे हुये..
इस तन्हाई में जागी सोई नींद..
टूटे सपनों की यादें बुनती रही,
रात अकेली चुपचाप रोती रही..
काले साये घेरे रहे हर पल,
अंधेरा और बढाते हुये..
और उदास गमगीन सी रोशनी..
अंधेरा ओढे सिरहाने बैठी रही..
और रात अकेली चुपचाप रोती रही...

"तुम ही नहीं खो चुकी हैं.. तुम्हारी यादें भी,

पर अचानक भींगी पलक तो लगा..

बाकी हैं कुछ निशान तुम्हारे अब भी.."

Thursday, February 15, 2007

एक पाती सांवरे तेरे प्रेम की..


बहुत दिन हुये, तुमसे कुछ कहे हुये..

तुम तो ठहरे निर्मोही, याद करोगे नहीं..

सोचा मैं ही लिखूं तुम्हें एक पाती प्रेम की..

सोचती हूं कैसा होता जो तुम आज यहां होते..


"तुम पीताम्बर पहन जब बांसुरी बजाते..

मैं सोलह सिंगार किये भाव-विह्व्ल हो,

सुनती तुम में खोकर, पल-पल बजती निगोङी पायल..

ऐसे ही बीतता हर पल जो तुम होते मेरे संग।"


"अभी रुत सावन की नहीं आई तो क्या..

रुत प्रेम की लेकर आते तुम अपने संग,

और हम झूलते 'पुष्प-लता' के झूले में..

ऐसे ही कट जाता ये दिन जो तुम होते मेरे संग"


"ये तुम्हारा गोकुल नहीं, ना ही वृंदावन है ये..

यहां यमुना तट भी नहीं, ना ही गोपियों का संग,

फिर भी हम रास रचाते भागीरथी-तट पर..

ऐसे ही बह जाता हर क्षण जो तुम होते मेरे संग"


"जब दिन ढले सुनहरे सिंदूरी सुरज को..

आगे बढ ये सांवली सांझ लगाती गले,

होता मेरी गोरी काया से सांवरे जैसे तेरा मिलन..

ऐसे ही मिलते ये दिवस निशा जो तुम होते मेरे संग"


"तुम्हें याद करते-करते सांवरे ये दिन भी ढल गया..

मैं भी तुम संग यूं ही हर पल रहती, तुममें बसती,

जैसे ये मुई चांदनी रहे हर पल चंदा के संग...

ये रात भी करती मुझसे जलन जो तुम होते मेरे संग"


' अब और क्या लिखूं, ऐसा क्या जो तुम नहीं जानते सजन..

एक बार तुम स्वयम ही आ जाओ उत्तर बन..

और देखो कैसे दिये सी जली है हर पल ये विरहण'

Tuesday, February 13, 2007

Some Quotes.. i like

  • Two things to be remembered in life:
"Never take a decison when you are ANGRY"

"Never make a promise when you are HAPPY"



  • "If the only place where i can meet you ie Dreams , will sleep forever"

  • "Trying to forget someone you love is like trying to remember someone you never met" Real loss occurs only when you loose someone you love more than yourself."

  • "In life, you will never know what you were missing .. until it arrives, and you will never know wat you have got until its missing"... Appreciate everything you have.

Sunday, February 11, 2007

प्यार को प्यार ही रहने दो...


प्यार ये ही तो नहीं कि जिसे आप प्यार करते हैं वो भी आपसे प्यार करता है.. कि आप दोनों साथ हैं.. खुश हैं.. कि किसी ने आपको अपना माना है.. कि किसी ने आपको अपना सब कुछ दे दिया है.. कि आप पर विश्वास करता है.. क्योंकि वो आपसे प्यार करता है.. कि कोई सिर्फ़ तुम्हें चाहता है.. तुम हंसते हो तो कोई साथ हंसता है.. वो जब ख्वाब देखता है तो तुम्हारे देखता है.. उसने वादा किया है तुम्हारा साथ निभाने का उम्र भर..कि कोई बस तुम्हारा है..कि किसी ने बस तुम्हें चाहा है.. उसे बस तुम्हारा खयाल है..। प्यार किसी को अपना बना लेने का गुरूर तो नहीं.. प्यार सिर्फ़ किसी के मिल जाने की खुशी तो नहीं... प्यार ये ही तो नहीं कि कोई सिर्फ़ तुम्हे चाहे और तुम उसे.. प्यार किसी एक का नहीं होता.. स्वार्थी नहीं होता.. प्यार वो है जो दूसरों के लिये जीना सिखाता है और ये सच है कि प्यार अगर सच्चा हो तो इंसान को बहुत अच्छा बना देता है.. प्यार अप्ने लिये नहीं होता.. प्यार अपनों के लिये होता है.. प्यार पा लेने का ही नहीं खो जाने का भी नाम है।

प्यार ये भी तो है कि आप किसी से प्यार करते हैं भले ही वो आपसे प्यार नहीं करता.. कि आप किसी के साथ हैं हमेशा.. कि कोई खुश है तो तुम खुश हो..कि तुमने किसी को सब कुछ दे दिया है बिना किसी उम्मीद के.. कि आप किसी पर विश्वास करते हो क्यूंकि आप प्यार करते हैं...तुम किसी को चाहते हो और तुम्हें उसका ख्याल है.. कि कोइ हंसता है तो तुम हंसते हो.. कि तुम किसी के ख्वाब देखते हो.. कि तुमने वादा किया है किसी का साथ निभाने क उम्र भर... कि तुमने बस उसे चाहा है। प्यार किसी का हो जाने का संतोष भी है.. तो किसी के बिछङ जाने का गम भी है.. और खुशी भी कि कुछ देर हि सही पर आप साथ थे.. प्यार ये भी कि तुम किसी के हो चुके हो.. प्यार तो बस प्यार है.. प्यार एह्सास है रिश्ता नहीं।

"तुम्हें प्यार मिला ये बङी बात है.. पर तुमने प्यार किया ये ज्यादा खूबसूरत एह्सास है"

" अगर कर सकते हो तो मह्सूस करो इस एह्सास को.. और दे सकते हो तो इतना प्यार दो कि कभी कोई कमी ना पङे.. कभी लेने की उम्मीद मत रखो.. प्यार उम्मीद पर नहीं किस्मत से मिलता है.. ये वो लकीर है जो हर हथेली पर नहीं होती...अगर कर सकते हो तो दुआ करो.. कि तुम्हें ना मिला ना सही.. पर उन्हें मिले जिन्हें तुम चाहते हो.. इसे देने कि खुशी मह्सूस करो.. जो खो जाने में लुत्फ़ है वो मिलने में नहीं.."

"ये वो दौलत है जो कभी घटती नहीं... तुम्हें कितना मिला ये तुम्हारी किस्मत.. तुमने कितना दिया ये तुम्हारी नीयत... प्यार तुम या मैं नहीं.. प्यार हम है.. प्यार सब है... प्यार रिश्ता नहीं.. प्यार बंधन नहीं.. प्यार तो तुममें , हममें , सबमें है.... प्यार दिलों में है.. इसे बंधनों में मत बांधो.... फ़ैलने दो आज़ादी से... महकने दो इसकी खुश्बू को..... प्यार तुम्हारा नहीं ना सहीं किसी का तो है, कहीं तो है...."

Saturday, February 10, 2007

मुझसे जुदा होकर भी जुदा कहां थे तुम...




तुमसे दूर रह्कर भी दूर रह ना पाई। उन हसीन वादियों ने भी हर पल तुम्हारी याद दिलाई।जब भी बादलों ने पहाङों को अपने आगोश में लिया.. लगा तुम ने समेट लिया मुझे अपनी बाहों में। जब कभी ठंडी हवा छूकर गुजर गई.. तुम्हारे स्पर्श के एह्सास से मैं सिहर गई।जब भी झरने की कल-कल सुनी.. लगा तुम हंस पङॆ कहीं।जब भी कोहरे की दूधिया चादर ने घाटी को घेरा और बारिश हुई .. लगा तुम से मिलकर आंखें बरस पङी, मन कि प्यास बुझ गई।धवल चांदनी से नहाये बर्फ़ की चादर से ढके पहाङों को देखा.. महसूस हुआ तुम सोये हो मेरा आंचल ओढकर।उगते हुये सुरज और उसकी किरणों में रंग बदलती पहाङीयों को देख लगा.. तुम आये हो और मेरे चेहरे पर रंग छलके हैं खुशी के, हया के।जब फ़ुलों पर पङी शबनम को छूआ तो लगा.. तुम ने छू लिया मेरे होठों को।वादियों की खुश्बू सांसो के साथ जो भीतर तक समा गई... मानो तुम उतर गये मेरी रूह में।जब कभी ऊंची-नीची पगडंडियों पर चलते हुये कदम लङखङाये... तुमने आकर थाम लिया हाथों को और राह आसान हो गई।


हर आवाज़ में तुम्हारी ही सदा सुनी.. हर नज़ारे में तुम नज़र आये... हर एह्सास में तुम बसे थे... हर पल, हर बात, हर जगह तुम ही तुम थे... देखो ना! अब ये फ़िज़ायें भी छेङने लगी हैं मुझे।








"तुम्हें भूल पाना नामुमकिन है ये मानती हूं मैं,


फिर भी जाने क्यूं कोशिश कर बैठती हूं..


तुम्हें भूलने की कोशिश में को खुद को भूल जाती हूं मैं।"

Friday, February 9, 2007

मुझे अफ़सोस नहीं......


मुझे अफ़सोस नहीं इसका..

की मैं राह हूं केवल...

किसी की मंज़िल नहीं...

गम है तो बस इतना की...

भूल जाते हैं राहें लोग...

मुझे अफ़सोस नहीं इसका..

की मैं साथी हूं केवल..

किसी की ज़िंदगी में शामिल नहीं..

गम है तो बस इतना..

साथ छोङ देते हैं लोग..

मुझे अफ़सोस नहीं इसका...

की मैं गुजरा पल हूं केवल..

जिसे तमाम उम्र हासिल नहीं..

गम है तो बस इतना..

गुजरा वक्त भूला देते हैं लोग...





"किसी और से नहीं पर खुद से गिला है मुझको,
शायद खुद मेरी वजह से मेरी ज़िन्दगी छोङ गई मुझको।"

Thursday, February 8, 2007

एक कल्पना जीवित अब भी मेरे मन में...


जीवन के इस कटु सत्य के बीच...

एक कल्पना जीवित अब भी मेरे मन में...

जब सारे चेहरे धुंधलाये दिखते हैं परछाईयों से...

जब सारे खोये-खोये से हैं इस भीङ में..

जाने क्युं एक तुम्हारा चेहरा अब भी बसता मेरे नयन में..

एक कल्पना अब भी जीवित मेरे मन में..

जब सारी अभिलाषाएं डरी सहमी सी...

और आशाएं टूट के बिखरी मन के आंगन में..

जाने क्यूं एक तुम्हारी आस अब भी मेरे स्वप्न में..

एक कल्पना जीवित अब भी मेरे मन में..

जब सारे एह्सास फीके भूलें से पङे हैं..

जब धूल जम गई है हृदय के दर्पण में...

जाने क्यूं तुम्हारे स्पर्श की सिहरन अब भी बसी मेरे मन में..

एक कल्पना जीवित अब भी मेरे मन में..

जब सारी आवाज़ें गुमसुम खोई सी हैं..

जब गीत सारे खो चुके इस गहरे सूनेपन में..

जाने क्यूं तुम्हारी आवाज़ सुनाई देती मेरी हर धङकन में..

एक कल्पना जीवित अब भी मेरे मन में..

अब बाकी नहीं इन्तज़ार किसी का..

पर जाने क्यूं तेरे आने कि आस बंधी जीवन में..

जाने क्यूं तेरे दर्श की प्यास जगी अंखियन में..

हां, एक कल्पना जीवित अब भी मेरे मन में...



"कैसे भूलूं तेरा वो ख्वाबों में आना ...

और बिन कुछ कहे चुपचाप चले जाना..."

Tuesday, February 6, 2007

परिवर्तन...


मैंने देखा है....

तुम्हारी आंखों में वो स्नेह का निर्झर...

मैंने पह्चाना है...

तुम्हारा वो निश्छल, कोमल मन...

फ़िर अचानक कैसे हुये...

तुम इतने कठोर...

कैसे.. जा सके तुम इतनी दूर..

एक बार कहो...

क्यों हुआ ये परिवर्तन...

जो तोङ दिये सारे बंधन..?

Sunday, February 4, 2007

मुझपे विश्वास बनाये रखना...


निराशाओं के इस मौसम में तुम,

दीप आशाओं क जलाये रखना,


उम्मीद की सुबह होने को है,

बस तुम माहौल बनाये रखना,


लग ना जाये कहीं इन्हें दुनिया की नज़र,

अपने सपनों को पलकों तले छुपाये रखना,


पूरे होंगे एक दिन ख्वाब तुम्हारे भी,

बस आस अपने में जगाये रखना,


गुजर ना जाये जिंदगी तुम्हारी भी यूं ही,

कुछ करने को दिल में हिम्मत बनाये रखना,


जब जरूरत हो किसी साथी की तुम मुझको आवाज़ देना,

मैं जरूर आउंगी दोस्त तुम मुझपे विश्वास बनाये रखना।

Saturday, February 3, 2007

तुम्हारा ख्याल..


जानती नहीं मैं..

कि तुम कौन हो?

कि तुम कहां हो?

पर तुम हो..

यहीं-कहीं मेरे पास ही,

तुम चलते हो मेरे साथ,

मेरे साये की तरह,

तुम्हारे होने के एह्सास से..

महका सा है मेरा मन,

जानती हूं मैं..

तुम आओगे एक दिन,

और भर जाओगे सारा सूनापन ,

फ़िर आज चाहे तुम..

मेरा ख्याल ही सही..।

एक प्रश्न उस रचयिता से....


कई बार सोचती हूं पूछुं उस रचयिता से उसकी रचनाओं का अर्थ...
अर्थ उसके हर सृजन का... अर्थ उसके हर विध्वंस का..

क्यों अन्धकार बन हर निशा वो छा जाता नभ पर,
फिर क्यों स्वयं ही उगता प्राची में सूरज बनकर,
क्या मतलब ज्योत्सना के धवल आंचल को दे शशि की झिलमिल..
फिर उस पर देना गहन आवरण अमावस बनकर,
जानना चाहती हूं उससे इस तिमिर-प्रकाश के खेल का अर्थ....

कैसे स्वरूप दिया उसने जाने कैसे ताने बाने बुनकर,
कैसे नई कहानी घढता वो अपनी हर कृति पर,
क्यों ऐसे बांधे तार दिलों के कि झंकॄत वो हर स्पर्श पर..
कैसे जोङा उसने सारे सिरों को कि हम रह जाते हर बार उलझकर,
जानना चाहती हूं उससे उसकी इस माया का अर्थ...

सब कहते हैं वो व्याप्त ब्रह्मांड के कण-कण पर,
वो हर मनुज में बसता आत्मा बनकर,
फिर क्यों मनुज स्वयं से लङता शत्रु बनकर...
क्यों रौंद डालता वो हर जीवन को अपने लक्ष्य के पथ पर,
जानना चाहती हूं अपनी इस अग्यानता का अर्थ.....

सत्य शाश्वत मृत्यु है और ये जीवन ‌क्षणभंगुर नश्वर,
हम सारे यहां उस अनंत पथ के हमसफ़र,
है सब को ग्यात ये सत्य फिर भी...
फ़िर कैसा हर्ष कैसा विषाद, जीवन के आरंभ-अंत पर,
जानना चाहती हूं अपनी इन भावनाओं का अर्थ...