Wednesday, March 28, 2007

दास्तां हुस्न औ इश्क की...


खता हया-ए-हुस्न से हुयी ऐसी भी क्या..

जो वफ़ा-ए-इश्क इस कदर रूठ गया...


हुस्न तो सदा ही बिखरा है टूट कर...

पनाह-ए-इश्क की बाहों मे, पर आज..

ज़रा सी दिल्लगी की ऐसी मिली सज़ा..

दामन-ए-हुस्न से इश्क कहीं छूट गया..


इश्क की गर्मी से तो हुस्न हमेशा पिघलता रहा..

रात दिन तमन्ना-ए-इश्क में जलता रहा...

इश्क जब भी मिला बस पल दो पल के लिये...

और हर बार रूह-ए-हुस्न को और तन्हा कर गया..


जलवा-ए-हुस्न को क्या बयां करे कोई...

काबिले तारीफ़ तो अदा-ए-इश्क है आजकल..

चाहा हुस्न को इश्क ने तड़प के इस कदर..

कि अपना दर्द वो हुस्न-ए-दिल में छोड़ गया...


कैसे शिकवा भी करे सदा-ए-हुस्न...

खामोश इश्क से उसकी बेरुखी पर...

यही तो लिहाज़ है दायरा-ए-मोह्ब्बत का..

वो तो बस दायरे का एक और वर्क मोड़ गया..


खाम्ख्वाह हुस्न को बेवफ़ाई का इल्ज़ाम ना दीजिये..

हुस्न तो आज भी जगा है इंतज़ार-ए-इश्क में..

वरना कब की बंद कर ली होती उसने पलकें अपनी..

गर खुली आंखों में वो उम्मीद-ए-इश्क ना छोड़ गया होता..




Saturday, March 24, 2007

ऐ मेरे दोस्त... कैसे करूं तेरा शुक्रिया...


बिन मांगी दुआ से तुम मिले मुझे मेरे दोस्त...
कैसे करूं मैं तेरी दोस्ती का हक अदा...
ऐ मेरे दोस्त!.. मैं कैसे करूं तेरा शुक्रिया...

कड़कती धूप में जल रही मेरी ज़िंदगी...
तुम लेके आये प्यार का घना साया..
मुझे जो रखा पलकों की छांव तले...
ऐ मेरे दोस्त!... मैं कैसे करूं तेरा शुक्रिया...

अंधेरी, सीली फ़िज़ां में घुटता दम मेरा...
सहमी सांसें, खोई थी रोशनी कहीं...
तुम बन के आये खुशी का उजियारा..
खुद को जला के किया जो मुझे रोशन..
ऐ मेरे दोस्त!.. मैं कैसे करूं तेरा शुक्रिया..

डरी, सहमी मैं अकेली.. बिल्कुल तन्हा....
साथी भी सारे बन गये अजनबी...
ऐसे में तुमने साया बन साथ निभाया...
भूल के अपनी तन्हाई जो बने मेरे साथी...
ऐ मेरे दोस्त!.. मैं कैसे करूं तेरा शुक्रिया...


मेरे सूने मन पर जब अंधेरा गहराया...
खो दी थी मैंने मंज़िल की राह भी...
ऐसे में तुमने हाथ पकड़ चलना सिखाया..
खुद की राह छोड़ जो चले मेरे संग....
ऐ मेरे दोस्त!... मैं कैसे करूं तेरा शुक्रिया...


मेरा खाली दामन तुम्हें कुछ भी ना दे पाया..
पर मेरी सारी मुश्किलें तुमने थाम लीं...
और तुम हर पल बने रहे मेरा सरमाया...
अपने आंसू भूल जो मेरी खुशी में हंस दिये....
ऐ मेरे दोस्त!... मैं कैसे करूं तेरा शुक्रिया...

Tuesday, March 20, 2007

रात ने जो पाया संग तेरा.......




स्याह, तन्हा..रात ने जो पाया संग तेरा..


आज सुबह है खिली-खिली सी...




रात भर पगली हवायें तुझसे लिपटी रहीं..


तेरे जिस्म का संदल छूती रहीं..


सर्द हवाओं को जो तुमने सहला दिया...


तभी आज पुरवा भी है महकी-महकी सी...




आसमां पे छिटकी धवल,चंचल चांदनी...


तुम्हें अपने आगोश में भरती रही..


ज्योत्सना ने जो किया आंलिगन तेरा..


तो भोर की लाली भी है गरमाई सी..




बावरी काली बदरिया तुम पर झुकी रही..


तुम छेड़ते रहे घनघोर घटाओं को...


घटाओं ने जो छुपाया वदन तुम्हारा...


सुबह ने ली है अलसाई,अंगड़ाई सी...




ये फ़िज़ायें तुमसे अठखेलियां करती रहीं...


कभी बिखरती, कभी तुममें सिमटती रही...


शोख कलियों को जो चूम लिया तुमने...


आज फूलों पे शबनम भी है शरमाई सी...




झील की लहरें करवटें बदलती रहीं..


ठंडी रेत तेरे पैरों तले पिघलती रही..


तुमने जो वादियों का दामन ओढा..


सुबह आसमां ने करवट बदली अनमनी सी...




रात ने जो पाया संग तेरा...


आज सुबह है खिली-खिली सी...






Evening and Me...........





Me watching the evening sun................... the dazzling light turning up to dim orange and now the sky was becoming grey n slowly more darker...........
Suddenly i felt myself like the evening ........light of my life.... becoming dimmer day by day....
Shadows of my life are growing more darker n darker....... the darkness is surrounding me more closer...n oneday it will grasp me......
I feel myself like the evening sky........empty..... when the sun is set n moon is yet to come....
My memories are like shining Stars..... but scattered n very far to reach.....
The slowly growing moonlit...... increasing my loneliness n emotions of my heart are becoming cold with the night....
The MOON and Me both alone... silent & still ...................................... and................ waitng for END..............

Friday, March 16, 2007

AJNABI SAATHI....


तुमसे मिलना.. एक अजीब-अद्भुत संयोग...

विपरीत धाराओं से मैं और तुम...

उलझ जाते हर बार जब भी मिलते...

ना तो मैं तुम्हारी सुनती.. ना तुम मुझे समझते..

दोनों बस अपनी ही रौ में बहते...


फिर धीरे-धीरे जाना तुमको मैंने और मुझको तुमने..

पर.. अभी बहुत समझना बाकी था...

रोज नये चित्र रिश्तों के बनते-बिगङते...

जाने-अनजाने हम बंधने-जुङने लगे...

एक-दुजे को सुनने-समझने लगे...


तुम्हें जानना एक अलग, पर सुखद अनुभव.....


"तुम्हारी वो मुझे ना चाहने की कोशिश...

तुम्हारी वो मुझे पा लेने की कशमकश...


तुम्हारा मुझपे स्वत्व भाव,अपनत्व और गहन आकर्षण...

तुम मोहित-मुग्ध.. सम्मोहित करते तुम्हारे चंचल स्वपन...


पर सीखा नहीं और ना ही किया तुमने दिखावा प्रेम का...

ना ही मिथ्या वचनों और दिवा-स्वप्नों पर नींव डाली प्रेम की..


तुम शुद्ध, कोमल... पर दृढ एवम कठोर भी...

अगम्य नहीं हृदय-पथ तुम्हारा.. पर नहीं सुगम भी...


खुशी का कोलाहल करती, तुम्हारी वो चंचल मृदु हंसी...

मेरी हृदय वीणा के तारों को छूती, झंकृत करती...


तुम सरल-सहज शिशु सम, तुम निर्भीक सत्य...

तुम अल्हङ, तुम चंचल, ना तुममें छल ना तुममें प्रपंच...


कहते रहे तुम सदा स्वयं को प्रस्तर...

पर तुममें बहता कहीं कल-कल वो स्नेह का निर्झर.."


'प्रेम' तुम्हें हुआ नहीं मुझसे अभी...

ये सत्य ग्यात है.. और स्वीकार्य भी...

पर जाने किस बंधन में बांध लिया तुमने...

मंत्र-मुग्ध सी खोई हूं इस अनन्य भाव में..

बहुत खुश हूं इस अनामित पर विस्तृत रिश्ते में...

एक अजनबी साथी!... तुम्हें पाकर.....

Wednesday, March 14, 2007

कहां समझता है कोई....


मैं समझता हूं तुम्हें....

शामिल हूं तुम में हमेशा..

हर बार कहता रहा वो...

पर जब भी खामोशियों को...

सुनने का वक्त आया....

धङकन भी कहां सुन सका कोई....

कहने को सब कह देते हैं, पर..

दिल की जुबां कहां समझता है कोई....


तुम्हारे दर्द का एहसास है मुझे...

महसूस करता हूं तुम्हें हमेशा...

हर बार जताता रहा वो...

पर जब भी ज़ख्मों को...

सहने का वक्त आया....

जरा सा भी दर्द कहां सका कोई...

कहने को सब कह देते हैं, पर...

पर किसी का दर्द कहां सहता है कोई....


मैं थाम लूंगा तुम्हें...

साथ हूं तुम्हारे हमेशा...

हर बार यकीं दिलाता रहा वो...

पर जब भी तन्हाईयों में....

साथ देने का वक्त आया...

दो कदम भी कहां...

साथ चल सका कोई...

कहने को सब कह देते हैं, पर...

उम्र भर कहां साथ चलता है कोई....

Monday, March 12, 2007

तुमने भी उम्मीद कहां की......


सच बङी सूनी-सूनी है.... आंखें मेरी...

इनमें लौ बुझ चुकी है ज़िंदगी की..

फ़िर तुमने भी सपनों की उम्मीद कहां की....?!!


एक अरसे से खामोश हैं.... लब मेरे...

इन पर छाई है एक चुप सी खामोशी....

फ़िर तुमने भी सदा की उम्मीद कहां की...?!!


पत्थर सा लगता है ये.... दिल मेरा...

इसमें कहां बचा है एह्सास कोई...

फ़िर तुमने भी ज़ज़्बातों की उम्मीद कहां की....?!!


खुद से ही हूं आजकल... अजनबी मैं....

इस राह पर कोई मेरे साथ नहीं....

फ़िर तुमने भी मंज़िलों की उम्मीद कहां की....?!!


Wednesday, March 7, 2007

हां नारी हूं मैं.. पर क्या है मेरा स्वरूप...







हर रोज़ ये सोचती हूं कि कौन हूं मैं.. क्या पहचान है मेरी..कभी सोचती हूं की प्रेम-विरह की राहों में उलझी नायिका हूं.. तो कभी लगता है सपनीली आंखों वाली नवयौवना हूं...कभी खुद को घर संभालती गृहिणी पाती हूं.. तो कभी दौङ-भाग करती,दफ़्तर जाती आधुनिका... कभी उस पत्थर तौङती,ईंट ढोती मजदूरिन में खुद को पाती हूं... कभी वो कपङॆ धोती,बरतन धोती भी मुझ जैसी लगती है... कभी उस पानी भरती पनिहारिन.. उस चूङी बेचती मनिहारिन... सबमें अपना ही स्वरूप देखती हूं.....

फ़िर लगता है नहीं इन सबसे बढकर पहले एक नारी हूं मैं.. नारी 'शक्ति सृजन की, तो शक्ति विध्वंस की भी'... दुर्गा का रूप हूं.. अंबा भी... रूप मुझमें काली और चंडिका का भी.... जीवनदायिनी मां का स्वरूप हूं... 'कौशल्या और यशोदा' भी मुझमें... जन्म दिया 'राम-कृष्ण' को मैंने.... तो 'कैकसी' का भी रूप मुझमें.. 'रावण' भी पनपा था मुझसे... प्रेयसी-प्रेमिका हूं 'अल्हङ राधा सी'.... तो रूप मुझमें रति का, रंभा का भी... 'सीता-सावित्री' बन धर्म निभाया मैंने... तो 'द्रौपदी, बन नींव डाली 'महाभारत' की..... रणभूमि में भी उतरी हूं तलवार लेकर.. संभाला है देश भी... हिमालय तक जा पहूंची हूं.... नापा है अंतरिक्ष भी.... खेल सकती हूं सागर से.. छू सकती हूं आकाश भी...

पर कौन समझा है मेरे इन रूपों को, मेरी इस शक्ति को... शायद स्वयं मैं भी नहीं... ये सत्य नहीं इस देश की आधी आबादी का... बस एक आवरण है मेरी वासत्विकता का.. मुझे पूजनीय कहा जाता रहा.. मूरत बना मंदिरों में बिठाया गया... पर क्या मैं सचमुच पूजी गई?.......

आज भी गर्भ में मेरी आहट या मेरा जन्म विचलित कर देता है मेरे जनक को... आज भी घिरी हूं अशिक्षा के अंधकार से.... जाने कितनी बार जली हूं अग्नि में जीवित या जलायी गई .. कभी 'दहेज की बलि वेदी' पर कभी 'सती' बनाकर... बस सौदर्य की उपमा या भोग की वस्तु ही माना गया मुझे.... तस्वीरों में उकेरी मेरी देह की कलाकृतियाओं पर मंत्रमुग्ध हैं सब... पर जब भी मैने अपने अस्तित्व के लिये नियम तोङे मेरे चरित्र पर सवाल उठाया गया... मेरी तस्वीरों का ModernArt पसंद है .. मेरा पाश्चात्यानुकरण अश्लील माना गया....आज भी बाज़ार गर्म है मेरी देह के क्रय-विक्रय का...



मुझे प्राथमिकता मिली केवल बस की सीटों या रेल की टिकट की कतार में या केवल 'कर-बचत' में नहीं... अपहरण,ब्लात्कार,शोषण, उत्पीङन इनमें भी प्राथमिकता प्राप्त है मुझे...


कब तक आखिर कब तक चलता रहेगा ये सब..? कब मुझे अपनी पहचान मिलेगी.. कब बरसों से दबे-कुचले अपने अस्तित्व को तलाश पाउंगी...कब 'शक्ति' बन 'शिव' के समान जी पाउंगी.. और कब तुम समझोगे मुझे...?

Monday, March 5, 2007

कई दिन हुये तुमने कोई बात नहीं की...


कई दिन हुये तुमने कोई बात नहीं की...

तुम मौन कह्ते रहे.. मैं मौन सुनती रही...

निःशब्द, मौन तुम एह्सास बने रहे..

वैसे पहले भी तुम कहते कहां थे..

बस तस्वीरें बनाया करते थे सपनों की..

और मैं उन सपनों में जी लिया करती थी... कुछ पल...

तुम्हारे शब्द.. स्वर नहीं थे.. सजीव चित्र थे..

कई रंग बिखेरा करते थे तुम सपनों में...


जब तुम कहते थे..

क्या मिलने आउंगी तुमसे नदी किनारे..

गुलाबी साङी पहन... ज़ुल्फ़ें बिखराये..

जब मेरे गालों को छेङती होंगी बिखरी लटें..

तो क्या इज़ाज़त दूंगी तुम्हें..

उन चंचल लटों को संवारने की...

और मैं बस मुस्कुराया करती थी...


कभी पूछ्ते थे तुम...

क्या तुम्हारे संग चलूंगी एक नाव पर..

बैठूंगी तुम्हारे संग.. तुम्हारे करीब..

देखूंगी बलखाती लहरों का खेल...

और जब बह्ती हवा में...

मेरा आंचल उङता होगा..

तो क्या तुम्हें.. अपना दामन थामने दूंगी...

और मैं फ़िर हंस देती थी...


जब तुमने कहा था...

क्या प्रेरणा बनूंगी तुम्हारी तस्वीरों की..

बैठूंगी.. ? मौन,निश्च्ल...

बिल्कुल मूरत सी तुम्हारे समक्ष..

और तुम मुझे आकार दोगे रेखाओं से,रंगों में..

क्या मैं तुम्हें अपनी कल्पनओं में..

रंग भरने दूंगी..

और मैं हंसकर लौट जाती थी..


याद है तुमने कहा था कि...

क्या कभी ले सकोगे...

मुझे तुम अपनी बाहों में...

क्या छू सकोगे वो संदल, वो रेशम..

क्या मेरे सुनहरे अधरों का..

कोमल स्पर्श तुम्हारे अधर कर सकेंगे..

क्या मैं तुम्हें.. अपने आगोश में..

कुछ पल जीने दूंगी...

और मैं मौन रह गयी थी...


जानती हूं मैने कभी जवाब दिया नहीं..

ना ही तुम्हें रंग भरने दिये सपनॊं में..

पर तुम्हारे वो अधूरे ख्वाब अनजाने मे..

मेरे ख्वाबों को पूरा कर गये...

पर तुम कब तक कहते अकेले..

कैसे लिखते अधूरी कहानी..

और फ़िर तुम मौन होते गये..

अब कई दिन बीत गये..

तुमने कोई बात नहीं की...

Thursday, March 1, 2007

नहीं बोलूंगी कान्हा तोसे..


नहीं बोलूंगी कान्हा तोसे मत छेङ मोहे.. जा मतकर ठिठोली...


काहे पकङे मेरी चुनरी.. काहे छीने मोरी गगरी..


जब देखो तब छेङे मुझको.. आगे-पीछे डोलत है..


कभी थामे बैंया मोरी.. कभी कलाई मोङत है..


अब दूंगी मैं तोहे गारी.. मत छेङ मोहे.. मत कर ठिठोली...



जाने कबसे रास रचाये गोपियों संग... और नी मुई बंशी बजावत है..


सांझ ढले सुधि आई मोरी.. फिर झूठी बात बनावत है..


जा अब नहीं सुनूं मैं बतियां तोरी... मत छेङ मोहे.. मत कर ठिठोली...



जब देखो तब भरमाये मुझको.. हौले से मुस्कावत है...


बस तुझको ही चाहूं.. तुझ बिन रह नहीं पाउं.. काहे मोहे जलावत है...


तेरी तो हर लीला न्यारी... मत छेङ मोहे.. मत कर ठिठोली..



ले सांवरे तोसे हार गयी मैं.. अब काहे सतावत है..


फाग का महीना है सांवरे.. अपनी प्रीत में रंग दे मोहे..


तुझ सी बन तुझ में समा जाउं.. अब दूरी नहीं सही जावत है...


तुझपे तो मैं जाऊं वारी.. चाहे तो छेङ मुझे .. चाहे कर ठिठोली..


आ खेलें हम भी प्रेम रस की होली...