Wednesday, December 20, 2006
Prashan
अपने प्रियतम के समक्ष खङी ..निःशब्द मौन नयिका..दोनो ही थे निश्चल, मौन..सम्वादहीन..अश्रुपुरित कातर नेत्रो सेनिहारती वो अपने प्रिय को,और सामने खङा वो स्तम्भितनायक, प्रियतम..खुद को छुपाता उस दृष्टि से,नायिका के मौन प्रश्न से..शान्त,निश्चल, कोमल मन उसका बङी देर से दे रही थी ,हर उत्तर अपने प्रिय के हर प्रश्न का..पर अब धैर्य कि सीमा तोड़ रही थी,हर बन्धन ...आकुल व्याकुल ह्र्दय..और व्यथित आहत मन..कर बैठी एक प्रश्न..."नहीं नकार सकी कभी कोई कामना तुम्हारी और ना ही कोई तुम्हारा प्रश्न...पर क्यों हर बार..मेरे प्रश्नो पर,तुम रहते हो मूक निरुतर..?""किसने दिया तुम्हे.. ये अधिकारकि मेरी सम्वेन्दनाओ को स्पर्श कर,तुम मूर्त रुप दो मेरी वेदनाओ को..?""ये प्रेम कि कैसी परिभाषा..कि हर बार छली गई मेरी अभिलाषा..?"जाओ अब और ना बताओ..मुझे प्रेम का अर्थ ..और ना मान्गो मुझसे कोई प्रमाण,स्वयम समझोगे तुम एक दिन..जब ये देह रह जाएगी..तुम बिन निष्प्राण..बस अब चले जाओ ..और ना दे सकुगी कोई उत्तर..ना ही कोई प्रमाण..
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2 comments:
प्रश्न है ये किससे अपने पन से ,अपने भावुक पल से या उस झरने से जो छूट गया है पीछे वक्त के…
साक्षी बनकर देखो पार कही तुम्हारे सामने तो उत्तर नहीं…
aaj tak to uttar mila nahi .. jab bhi sawaal kiye wo sirf maun hi raha..
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