Monday, December 25, 2006
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टुकड़े दिल के और कितने होने बाकी हॅ.. और कितना जलना हॅ जिन्दगी को अपनी हि ज्वाला मॅ.. और कितने इम्तिहान देने हॅ अभी .. और कितने कान्टॉ की पीड़ा तुमने लिखी है..और कितनी सान्सॅ लेनी हॅ इस दम घोन्टते धुयॅ मॅ.. कब तक सहमी रहॅगी भावनायॅ..कब तक बन्धन मॅ रहॅगे ये कदम.. कब खतम होगा ये इन्त्जार..
Thursday, December 21, 2006
ek koshish..
इस मधुर सुन्दर जीवन कि चाक पर खुद को पाती हुंएक कुम्हार सा..सपनो कि गीली मिट्टी से लीपे हॅ मेरे हाथ.. उस नम मुलायम मिट्टी को कोशिश कर रही हुंएक शक्ल देने कि,एक चेहरा मेरे एह्सासों का..सच कहुं तो ये कोशिश हॅ तुम्हे एक स्वरुप देने की..तुम जो एक स्वप्न हो मेरे लिये एक रह्स्य..जानती हुं तुम्हारे असीम व्यक्तित्व को स्वरुप देना आसान नहीं मेरे लिये..पर फिर भी चाहती हुं तुम्हे समेटना अपनॅ हाथों में..और छुना चाहती हुं अपनी उंगलियों से तुम्हें.इस स्नेहसिक्त मिट्टी कि सोन्धी महक.. मुझे एह्सास दिलाती हॅ तुम्हारीमहक का.. मानो की तुम कहीं आस-पास हो, और मै बन्ध जाती हुं सम्मोहन से..हर पल ढुंढ़ती हॅं तुम्हे मेरी दृष्टि..,पर तुम तो केवल एक स्वप्न हो, एक रहस्य..ऐसा तिलस्म जिसमे खो चुकी हुं मैं..और कोशिश करती हुं अपने सपनों को मुर्त्त रुप देने की.जैसे जैसे मेरि उन्गलियां उस नम मिट्टी को शक्ल देती जाती है वैसे वैसे भावनायें उद्वेलित करती हॅ मेरे मन को. एक खुशी एक सम्मोहन.. खुद खो रही हुं अपनी ही कृति में..मेरी कृति .. एक कोशिश तुम्हे समझने की.. अब सोचती हुं कुछ रंग भरुं इसमें.. अपनी भावनाओं के..रंग जिनसे एह्सास हो मुझे तुम्हारे रुबरु होने का..तुम्हारे असीम व्यक्तित्व का.. उस अनन्त छवि का. उस निर्मल प्रेम सागर का.. जो स्वयम ही प्यासा हॅ.. और मै उस सरिता समान .. जिसे एह्सास हॅ सागर कि त्तृष्णा का.. और मॅ व्य़ाकुल हो चल पड़ी हुं .. तुममे समाहित होने को.. तुम्हारे स्नेह में आकन्ठ डूब जाने को.. और तुम्हे संग ले भीग जाने को.. खो जाने को.. पर तुम तो एक स्वपन हो अब तक , एक रह्स्य और मैन एक नाकाम कोशिश तुम्हे जानने कि.. पर तुम्हारे स्नेह से सिक्त हॅ हृदय मेरा...
Wednesday, December 20, 2006
Prashan
अपने प्रियतम के समक्ष खङी ..निःशब्द मौन नयिका..दोनो ही थे निश्चल, मौन..सम्वादहीन..अश्रुपुरित कातर नेत्रो सेनिहारती वो अपने प्रिय को,और सामने खङा वो स्तम्भितनायक, प्रियतम..खुद को छुपाता उस दृष्टि से,नायिका के मौन प्रश्न से..शान्त,निश्चल, कोमल मन उसका बङी देर से दे रही थी ,हर उत्तर अपने प्रिय के हर प्रश्न का..पर अब धैर्य कि सीमा तोड़ रही थी,हर बन्धन ...आकुल व्याकुल ह्र्दय..और व्यथित आहत मन..कर बैठी एक प्रश्न..."नहीं नकार सकी कभी कोई कामना तुम्हारी और ना ही कोई तुम्हारा प्रश्न...पर क्यों हर बार..मेरे प्रश्नो पर,तुम रहते हो मूक निरुतर..?""किसने दिया तुम्हे.. ये अधिकारकि मेरी सम्वेन्दनाओ को स्पर्श कर,तुम मूर्त रुप दो मेरी वेदनाओ को..?""ये प्रेम कि कैसी परिभाषा..कि हर बार छली गई मेरी अभिलाषा..?"जाओ अब और ना बताओ..मुझे प्रेम का अर्थ ..और ना मान्गो मुझसे कोई प्रमाण,स्वयम समझोगे तुम एक दिन..जब ये देह रह जाएगी..तुम बिन निष्प्राण..बस अब चले जाओ ..और ना दे सकुगी कोई उत्तर..ना ही कोई प्रमाण..
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